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चैतन्य की चहल-पहल
परिस्थिति का दासत्व स्वीकार नहीं करता। इसीलिए नरक एवं स्वर्ग के विषम वायुमण्डल में भी 'मैं नारकी नहीं', 'मैं देव नहीं वरन् 'मैं तो अक्षय चैतन्य तत्त्व हूँ ऐसे अविराम संचेतन में उसका जन्म हो जाता है। इसीलिए वह हर गति में होता है।"
इस युग में सम्यग्दर्शन श्री कानजीस्वामी की एक ऐसी शोध है जिसने मृत्यु की ओर बढ़ते युग के चरण जीवन की
ओर लौटा दिये हैं। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि उस संत के सम्यग्दर्शन ने मृत्यु को ही मारकर विश्व से उसकी सत्ता ही समाप्त कर दी है। -
सम्यक् चारित्र का सौन्दर्य ___ सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान की तरह पूज्य गुरुदेव ने चारित्र का भी एक प्राञ्जल स्वरूप प्रस्तुत किया। वे चारित्र के महान् उपासक हैं। चारित्रवन्त दिगम्बर सन्तों के अन्तर-बाह्य स्वरूप का वर्णन करते-करते वे अघाते नहीं हैं। सहस्रों बार उनके अन्तस्तल से ये उद्गार सहज ही निकल पड़ते हैं कि “ऐसे वन-विहारी नग्न दिगम्बर वीतराग सन्तों के दर्शन हमें कब प्राप्त हों और वह अवसर कब आवे जब उस आनन्दमय नग्न दिगम्बर दशा की हमें उपलब्धि हो।" कुन्दकुन्द एवं अमृतचन्द्र जैसे अनन्त भावलिंगी सन्तों के चरणों में उनका मस्तक सदा नत रहता है। आनन्द में झूलते दिगम्बर सन्तों के हृदय के मर्म को आज वे ही पहिचान पाये हैं। मुनित्व के बाह्य इतिवृत्तों में मुनि का आत्मा खो गया था। चारित्र को कठिन एवं कष्टसाध्य माना जाता था। चारित्र के उस महान् उपासक की वाणी के माध्यम से चारित्र का सही स्वरूप आज निखरा है। कोरे शुभ