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सम्यग्दर्शन का विषय (द्वितीय)
45. नहीं है। इन सबकी समग्रता में भी प्रचंड अन्तर-पुरुषार्थ के बिना सम्यग्दर्शन नहीं होता। यह भी नितांत असत्य है कि सम्यग्दर्शन होने पर स्वयं को उसका पता नहीं चलता। सम्यग्दर्शन का उद्भव होने पर साधक को निज शुद्ध चैतन्य सत्ता की लीनता में अतीन्द्रिय आनन्द का प्रत्यक्ष संवेदन होता है। आगम का अक्षर-अक्षर इसका साक्षी है।
उन सन्त ने सम्यग्दर्शन के इस निश्चय पक्ष का ही विवेचन नहीं किया, वरन् उसके व्यावहारिक पक्ष का भी प्रबल समर्थन किया। उन्होंने कहा “सम्यग्दृष्टि मिथ्यात्व, अन्याय एवं अभक्ष्य का सेवन नहीं करता। उसका लोक-जीवन बड़ा पवित्र होता है। वह स्वप्न में भी अतत्त्व एवं असत्य का समर्थन नहीं करता। वही सच्चे देव-गुरु-धर्म का सच्चा उपासक होता है। जीवन में इस विशुद्धि के प्रादुर्भाव के बिना सम्यग्दर्शन नहीं होता। उसका जन्म पवित्र मनोभूमि में ही होता है।"
_सम्यग्दर्शन की गरिमा को गाते-गाते वे सन्त विभोर हो जाते हैं। वे कहते हैं – सम्यग्दर्शन जीवन की कोई महान् उपलब्धि है। वह जीवन-तत्त्व एवं जीवनकला है। उसके बिना जीवन, मृत्यु का ही उपनाम है। ज्ञान में स्व-पर का भेद समझने की क्षमता होने पर सम्यग्दर्शन हर परिस्थिति में हो सकता है। सातवें नरक की भयंकरता अथवा स्वर्गों की सुषमा उसमें बाधक नहीं होती। कर्मकाण्ड के कठिन विधान उसकी उत्पत्ति में मदद नहीं करते। उसे घर नहीं छोड़ना है, देह का विसर्जन नहीं करना है वरन् घर एवं देह में रहकर ही उनसे अहं तोड़ना है। इसीलिए सम्यग्दर्शन सरल है। कठिन की कल्पना ही कठिनाई है। सम्यग्दर्शन अनुकूल अथवा प्रतिकूल