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________________ चैतन्य की चहल-पहल आश्रय करना श्रद्धा के लिये सम्भव ही नहीं है; क्योंकि दोनों पहलू परस्पर विरुद्ध हैं । निर्विकार नित्य तथा सविकार अनित्य, अथवा द्रव्य और पर्याय को समानरूप से उपादेय मानकर एक ही समय में उनका आश्रय (अहं) किया जा सके ऐसा नहीं बनता। दो पक्षों में से एक समय में एक का ही आलंबन सम्भव है, अतः सम्यग्दृष्टि नित्य शुद्धद्रव्य का ही आलंबन करता है, क्षणिक पर्याय का नहीं । अनेकान्त स्वभावी वस्तु के दोनों पक्षों को एक ही साथ हेय उपादेय रूप से विषय करना ज्ञान का कार्य है और उस ज्ञान को ही प्रमाण अथवा अनेकान्त कहते हैं। श्रद्धा यदि दोनों पक्षों को समान रूप में विषय करे, अर्थात् उपादेय माने तो वह मिथ्या है और ज्ञान यदि दोनों पक्षों को एक समय में समानरूप से विषय न करे अथवा सापेक्षता से एक ही पक्ष को एक समय में विषय न करे तो वह ज्ञान मिथ्या है। 24 अनेकान्त दृष्टि अर्थात् प्रमाण दृष्टि में द्रव्य-गुण- पर्यायात्मक पदार्थ का अखंड भाव से स्वीकार हो चुकने पर ही उसके किसी एक धर्म को विषय करनेवाले ज्ञान की सम्यक् संज्ञा (नय) होती है । किन्तु अनेकान्त दृष्टि में पदार्थ को सम्पूर्णता से द्रव्य - पर्यायस्वरूप जान लेने पर भी सम्यग्दर्शन अनेकान्त ज्ञान के विषयभूत इस सम्पूर्ण पदार्थ को ही उपादेय नहीं मानता वरन् उसके नित्य शुद्ध पक्ष को ही अंगीकार करता है। इस प्रकार सम्यग्दर्शन आत्मा के जिस स्वभाव को विषय करता है, ज्ञान - चारित्रादि अनन्त शक्तियाँ भी उसी स्वभाव का अनुशीलन करती हैं और अन्त में मुक्त दशा में भी उसी स्वभाव का अहं, संवेदन एवं लीनता पूर्वक पूर्ण शुद्धता अभिव्यक्त होती है।
SR No.007142
Book TitleChaitanya Ki Chahal Pahal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYugal Jain, Nilima Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year2012
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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