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________________ 23 सम्यग्दर्शन और उसका विषय (प्रथम) ही व्यक्ति के धर्म होने पर भी स्वास्थ्य की उपलब्धि के लिये आरोग्य स्वभाव ही उपादेय तथा श्रद्धेय होता है, रुग्णता तो जानने मात्र के प्रयोजन की होती है; उससे अन्य किसी प्रयोजन की सिद्धि नहीं होती। जबकि आरोग्य स्वभाव तो प्रयोजनभूत मूलतत्त्व है। वह तो श्रद्धा, ज्ञान और आचरण के योग्य है। रुग्णता तो श्रद्धा और आचरण का विषय बनने योग्य नहीं है। यदि वह श्रद्धेय हो तो उसका अभाव कैसे किया जाय ? क्योंकि श्रद्धेय का अर्थ ही उपादेय होता है। इसी प्रकार आत्मा की सभी विकारी निर्विकारी पर्यायें समानरूप से क्षणिक तथा आश्रयदातृत्व से शून्य होने के कारण मात्र ज्ञेय ही होती है, उपादेय नहीं होती, अत: वे सम्यग्दर्शन का विषय नहीं होती; मिथ्यादर्शन का विषय होती है। त्रैकालिक शुद्ध अखंड जीवत्व को विषय करने के कारण सम्यक् श्रद्धा को एकान्त का दोष आता हो ऐसा भी नहीं है; क्योंकि प्रथम तो पूरे जीव पदार्थ में से जितना अपेक्षित होता है, सम्यग्दर्शन ले लेता है अर्थात् अहं करता है और शेष अंश पदार्थ में विद्यमान रहते हुए भी वह उसे छोड़ देता है। और क्षणिकता से जब उसे प्रयोजन ही नहीं है तो वह उसे लेकर भी क्या करे ? ज्ञान में ध्रुव द्रव्य के अहं के साथ पर्याय की विद्यमानता स्वीकृत होने के कारण ज्ञान में अनेकान्त एवं श्रद्धा में सम्यक् एकान्त निर्विवाद विद्यमान रहता है। वास्तव में एकान्त-अनेकान्त श्रद्धा के धर्म नहीं है, वरन् ज्ञान के धर्म हैं। अनेकान्तात्मक वस्तु में तो द्रव्य-पर्याय, ध्रुव क्षणिक, निर्विकार-विकार आदि परस्पर विरुद्ध अनन्त धर्म एक ही साथ पड़े हैं। किन्तु सबको समानरूप से उपादेय मानकर
SR No.007142
Book TitleChaitanya Ki Chahal Pahal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYugal Jain, Nilima Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year2012
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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