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चिद्काय की आराधना/93
‘परम शरण स्वरूपोऽहम्' .. शरणा जिसका पाय कर, आतम होय विशुद्ध।
परम शरण जग में वही, कह गये ज्ञानी बुद्ध।। निज प्रदेशों और गुणों की अपेक्षा मैं परम शरणस्वरूप हूँ। .
णिय दिव्व देह सरणं पव्वजामि। मैं निज दिव्य देह की शरण प्राप्त करता हूँ।
चत्तारि सरणं पव्वजामि, अरहंते सेरणं पव्वज्जामि, सिद्धे सरणं पव्वजामि, साहू सरणं पव्वजामि, केवली पण्णत्तो धम्म सरणं पव्वजामि।
मैं अरहंत, सिद्ध, साधु और जिन धर्म की परम शरण को प्राप्त करता हूँ।
व्यवहार से लोक में चार शरण हैं। अरहंत भगवान लोक में परम शरण हैं, अष्ट कर्मों से रहित सिद्ध भगवान लोक में परम शरण हैं तथा रत्नत्रय के आराधक षष्ठम गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थानवर्ती सर्वसाधु लोक में परम शरण हैं और केवली भगवान द्वारा प्रणीत धर्म लोक में परम शरण है। .
आपका आप ही रक्षक है। आपको आपकी ही शरण है। हे भव्य! निश्चय से तेरी चिद्काय ही तुझको परम शरण है। तू उसकी शरण प्राप्त कर।
हे भव्य! तेरी चिद्काय ही तेरी है, अमर है, किन्तु कर्म के सम्बन्ध से भव-भव में मेरण को प्राप्त करती है। उसका अनुभव करके उसकी रक्षा कर।
जिस पदार्थ का आश्रय लेने से जीव का कभी पतन नहीं हो, वही शरण है। हे भव्य! जो जीव निज चिद्काय की शरण प्राप्त नहीं करता है, उसका अवश्य ही पतन होता है, वह चतुर्गतिरूप संसार में परिभ्रमण करता है। जो जीव निल चिद्काय की शरण प्राप्त करता है, उसका कभी पतन नहीं होता है, अपितु उत्थान होता है। वह तीन लोक का शिरोमणि सिद्ध परमात्मा होता है।