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94/चिकाय की आराधना
'सकल कर्म क्षय कारण स्वरूपोऽहम्'
परम विशुद्ध चिदानन्द अनुभव करना मेरा काम । अपने पद में थिर रह करके, स्वाध्याय है मेरा धाम ।। अरहंत सिद्ध सम मेरा आतम, उस को अब प्रकटाऊँगा । अपनी शक्ति व्यक्त करूँ, अब ऐसा ध्यान लगाऊँगा ।।
मैं सकल कर्मक्षय का कारण हूँ।
हे भव्य! निज चिकाय आश्रय करने पर सकल कर्म क्षय का कारण है। निज चिकाय अनादिनिधन है, परम पारिणामिक भाव है, कारण परमात्मा है। निज चिकाय का आश्रय करना मोक्ष का मार्ग है, सकल कर्म क्षय का कारण
है।
हे भव्य ! नेत्र बन्द कर अपने उपयोग को सकल कर्मक्षय के कारणभूत अपनी चिकाय में लगाने का प्रयत्न कर।
मेरी दिव्यकाय अनन्त दिव्य गुणों से पूर्ण भरितावस्था रूप है, कर्मक्षय के लिए कारण स्वरूप है।
सकल
हे पथिक! अनादि काल से सुख के लिये जगत के कण-कण को अनन्त बार जी भर-भर कर देखा जाना, लेकिन तुम्हें आज तक तृप्ति नहीं हुई। कभी आँखें बंद भी करते हो तो मन से विचार करने लगते हो। दिल-दिमाग में एक ही तमन्ना लगी रहती है कि दुनिया के सारे पदार्थो को बारम्बार देखूँ। अब बाह्य पदार्थों को देखने-जानने से बस करो । सुख अपनी चिट्ठाय में है। इसलिये अपनी चिट्ठाय को ही बारम्बार स्वसंवेदन प्रत्यक्ष देखो । बाह्य पदार्थों के सन्मुख होकर देखना तुम्हारा स्वभाव नहीं है। मोहकर्म के उदय से ही जीव बाह्य पदार्थों को सन्मुख होकर देखता है और रागादि रूप परिणमन कर नूतन कर्मो का बंध करता है।
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हे आत्मन्! निज चिकाय के ध्यान के द्वारा सकल कर्मों को नष्ट करो। इनके नष्ट होते ही शाश्वत सिद्ध अवस्था की स्वयमेव प्राप्ति हो जायेगी।