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92/चिकाय की आराधना
'परमोत्तम स्वरूपोऽहम्'
चूर है ||
परम उत्तम आतमा यह, ज्ञान केवल पूर है। जग के सब द्वन्द्वों से हटकर, निज गुणो में पाता वही जो कुलाचार से, मूल व्रत में आत्मगुण शालीनता से,
शुद्ध है।
आतम रस
पूर
है।
निज प्रदेशों और गुणों की अपेक्षा मैं परम उत्तमस्वरूप हूँ । निश्चय से मेरी चिकाय परम उत्तम स्वरूप है। मैं अंतर्दृष्टि कर उसमें लीनता करता हूँ ।
चत्तारि लोगुत्तमा । अरहंता लोगुत्तमां । सिद्धा लोगुत्तमा । साहू लोगुत्तमां । केवली पण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमो ।
व्यवहार से लोक में चार उत्तम हैं। अरहंत भगवान लोक में उत्तम हैं, अष्ट कर्मों से रहित सिद्ध भगवान लोक में उत्तम हैं तथा रत्नत्रय के आराधक षष्ठम गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थानवर्ती सर्व साधु लोक में उत्तम हैं और केवली भगवान द्वारा प्रणीत धर्म लोक में उत्तम है।
जो भव्यात्मा अरहंतादि परमेष्ठी को द्रव्य, गुण, पर्याय से जानता है; वह अपनी देह में विराजमान निज अरहंतादि परमेष्ठी का अनुभव करता है और अरहंतादि परमेष्ठी पढ़ों को प्राप्त कर लेता है।
अज्ञानी जीव अनुत्तम जड़ पदार्थों को प्राप्त करने का प्रयत्न करता है, किन्तु उत्तम निज चिकाय को प्राप्त करने का प्रयत्न नहीं करता है। इसलिये संसार में परिभ्रमण कर नाना दुःखों को भोगता है।
तीन लोक का वैभव एक ओर हो और अपनी चिट्ठाय दूसरी ओर हो तो तीन लोक के वैभव को छोड़कर अपनी चिकाय का ही ग्रहण करना चाहिए।
हे भव्य! तू उत्तम मोक्षस्वरूप अपनी देह प्रमाण चिकाय की आराधना कर और शीघ्र उत्तम मोक्ष पद को प्राप्त कर ।