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- 56/चिकाय की आराधना
‘चित्कला स्वरूपोऽहम्’
आनन्द कन्द दुःख भंजन एक न्यारा । है अचल निर्भर सुखामृत का पिटारा || पीओ पथिक तुम इसे भर अनुभव प्याला । मिलता यहाँ सुख सदा अनुपम विशाला ।।
निज चिकाय में तल्लीनता चित्कला कहलाती है। आत्मानुभूति का प्यासा जीव आत्मानुभव रूप चित्कला को सीख कर उसमें निपुणता प्राप्त करता है।
हे मुक्ति के राही ! तेरा शुद्ध चिकाय स्पर्श, रस, गंध और रूप से रहित है, मन और इन्द्रियों के अगोचर है, स्वानुभवगोचर है, केवल चेतना गुणवाली है। उस चेतना गुण की शुद्ध परिणति तेरा स्वरूप है।
एक निपुण चित्रकार जिस समय सुन्दर चित्र बनाने में मग्न हो जाता है, उस समय उसकी दशा बाह्य विषयों से भिन्न हो जाती है। उसे अन्य सब विषय फीके नजर आते हैं। उसीप्रकार निज चिकाय रूपी उद्यान में केलि करने वाला निपुण कलाकार उसमें ऐसा तल्लीन हो जाता है कि उसे बाह्य सब वस्तुएँ निस्सार नजर आती हैं।
हे आत्मन्! इस चित्कला की प्राप्ति अपूर्व है। समस्त झंझटों से रहित होकर एकांत स्थान में बैठकर अपनी चिकाया में लीन हो । निज शुद्ध जीवास्तिकाय का भली प्रकार ध्यान कर । समस्त सिद्धांत का सार यही है कि बहिर्मुखता छोड़कर अन्तर्मुख होकर निरंतर निज चिकाय के ध्यान का अभ्यास करो। तुम्हारी चिकाय ही तुम्हारा बंधु है, मित्र है, परमात्मा है । अन्तर्मुख होने का नाम ही ध्यान है। नेत्र बंद कर पांव के नख से मस्तक तक क्रमशः अपनी दृष्टि को पसारो। अपने चिकाय रूपी सरोवर में ही अपने चित्त का सदा विहार कराओ। इससे तुम्हें संसार के अनन्त दुःखों से मुक्ति मिलेगी। जो समस्त संकल्पविकल्प को छोड़कर अंतर में अपनी चिट्ठाय का अनुभव करता है, वही अनंत सुख को प्राप्त करता है।