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चिद्काय की आराधना/55
'अचल निर्भरानन्द स्वरूपोऽहम्' जब निज आतम अनुभव आवे। रस नीरस हो जाय तत्क्षण,.अक्ष विषय नहीं भावे।। गोष्ठी कथा कुतूहल सब विघटै, पुद्गल प्रीति नशावे। राग-द्वेष युग चपल पक्ष युत, मन पंछी मर जावे।
ज्ञानानन्द सुधारस उमगै, घट अन्तर न समावै।। मैं अचल पूर्ण आनन्द स्वरूप हूँ। पूर्ण अतीन्द्रिय आनन्द अव्यक्तरूप से सदा मुझ में विद्यमान है। मैं उसका स्वामी हूँ, सदा उससे अभिन्न हूँ। मेरी दिव्यकाय अचल आनन्द से पूर्ण कलशवत लबालब भरी हुई है। ___ समस्त इन्द्रियाधीन विषय सुख से भिन्न मेरा स्वतंत्र अतीन्द्रिय आत्मानन्द है। मैंने मोह में अटकाने वाले स्वार्थपूर्ण राग को ही आनन्द मानकर अपनी आनन्दमयी चिद्काय को नहीं पहिचाना। इन्द्रियो की विषय पूर्ति को ही आनन्द मानकर तृप्त रहा। स्वयं का निर्दोष आनन्द स्वयं में अभिन्न छिपा है, उसे प्राप्त करने का कभी पुरुषार्थ नहीं किया। अब मैं जागृत हुआ हूँ। अपने अतीन्द्रिय अचल पूर्णानन्द को अंतर में प्राप्त कर उसी में डुबकी लगाने का प्रयास करता हूँ। मेरी चिद्काय का अतीन्द्रिय आनन्द शाश्वत है, स्वतंत्र है, परद्रव्य की पराधीनता से रहित है, इन्द्रियातीत है। तीनों लोक को अशांति करने वाला भीषण तूफान भी मेरे आत्मानन्द को चलायमान नहीं कर सकता। ___ भगवान कहते हैं कि प्राप्त देह में ही तेरा निवास है, ऐसा तू निश्चय कर। बहिर्मुखता छोड़कर एक निज चिद्काय का ही अनुभव कर। तेरी चिद्काय शाश्वत है। इसी का अवलम्बन लेना मोक्षमार्ग है। अंतर्मुख होकर अपने विस्तार पर दृष्टि पसार। प्राप्त देहप्रमाण स्वसंवेदनगोचर तेरा विस्तार है। तेरी व्यंजनपर्याय को द्रव्यपना है। अंतर्दृष्टि कर सदा अपनी व्यंजनपर्याय को लक्ष्य में ले। इसी उपाय से तू निर्विकल्प होगा, सर्व कर्म नष्ट होंगे और परमात्मा बनेगा।