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54/चिकाय की आराधना
'सहज शुद्ध पारणामिकभाव स्वभावोऽहम्' जो ध्याता है नित्य, सहज शुद्ध पारिणामिक भावा । करता मुक्ति निवास, देते आचार्य यह दावा ।। मुक्ति पथिक अब जाग, ले उसी का सहारा, मिट जाये अब शीघ्र, जन्म-मरण दुख भारा ।।
मेरी निज चिकाय मेरा कर्म निरपेक्ष शुद्ध पारिणामिक भाव है। मैं उस शुद्ध पारिणामिक भाव की नित्य वंदना करता हूँ तथा उसी में तल्लीन रहने का पुरुषार्थ करता हूँ।
जीवद्रव्य के पाँच भाव हैं- औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक। कर्म के उपशम से औपशमिक, क्षय से क्षायिक, क्षयोपशम से क्षायोपशमिक और उदय से औदयिक भाव होते हैं। कर्मों की सम्पूर्ण उपाधि से रहित पारिणमिक भाव होता है। क्षायोपशमिक, औपशमिक और क्षायिक भाव मोक्षमार्ग और मोक्ष को करने वाले हैं, औदयिक भाव बंध करने वाला है और पारिणामिक भाव निष्क्रिय है, आश्रयभूत है।
जिस भाव में इन्द्रिय, मन, कर्म आदि की अपेक्षा नहीं है, वह शुद्ध पारिणामिक भाव है। कर्मों के उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम से मुक्त होने से मेरा पारिणामिक भाव सदा शुद्ध है, मैं उस भाव स्वरूप हूँ।
हे भव्य! शुद्ध पारिणामिक भाव की शरण ग्रहण करो, उसी की आराधना, उसी की श्रद्धा, उसी की पूजा, उसी की वन्दना करो ।
अनन्त स्वाधीन सुख का भंडार मेरे स्वभाव में, मेरी ही चैतन्य काया में भरा है, किन्तु मैंने इसको नजरों से ओझल रखा है। यह मैंने मेरा ही अनादर किया है। इस कारण भव भ्रमण रूप सजा मैं अनादि से भोग रहा हूँ। अब मैंने अपनी दिव्यकाय का ही प्रति समय स्मरण, संवेदन कर भव भ्रमण नहीं करना
है।