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चिद्काय की आराधना/57 'चिन्मुद्रांकित निर्विभाग स्वरूपोऽहम्'
चैतन्य शुद्ध चिन्मुद्रा यह अनूठी। पाता वही जगत में जिसको न कुबुद्धि।। .. है निर्विभाग यह एक अखंड ध्याता।
पाओ पथिक अब इसे जग छोड़ नाता।। वह परम उत्कृष्ट जगत प्रकाशक ज्योति हमें प्राप्त होवे, जो कि सदाकाल चैतन्य की उठती तरंगों से परिपूर्ण है। जिस प्रकार नमक की एक डली एक क्षार रस की लीला का ही अवलम्बन करती है, उसी प्रकार यह परम प्रकाश, तेज परद्रव्यों से भिन्न निज शुद्धात्मा का अवलम्बन करता है। यह तेज अखंडित है। किसी से भी खंडित नहीं होता। __शुद्ध चैतन्य स्वरूप चिन्मुद्रा में शोभायमान है और जिसका किसी प्रकार विभाग न हो सके ऐसा शुद्धात्मा प्रभु मैं हूँ।
मेरा आत्मा निश्चय से अमूर्त होने से वर्ण, गंध, रस, स्पर्श से रहित है, पुद्गल से रचित संस्थान तथा संहनन से रहित है। योगस्थान, बंधस्थान, उदयस्थान, मार्गणास्थान, स्थितिबंधस्थान, संक्लेशस्थान, विशुद्धिस्थान, संयमलब्धिस्थान, जीवस्थान, गुणस्थान में भी मेरी मुद्रा नहीं है। ये सब पुद्गल द्रव्य के संयोग से होने वाले परिणाम है।
देहदेवालय में विराजमान शुद्धात्मा की ही मैं नित्य आराधना करता हूँ। हे परमात्मा! मैं तुम्हारी निरन्तर वन्दना-अर्चना करता हूँ। मेरा चिन्मुद्रांकित आत्मा अखंडित है। ऐसे अपने शाश्वत स्वरूप में निवास करता हूँ।
हे आत्मन्! निश्चय से जीवकाय को कोई खंडित नहीं कर सकता, अग्नि में जला नहीं सकता, पानी में डुबा नहीं सकता; किन्तु कर्म के सम्बन्ध से मूर्तिकपना होने से अग्नि, पानी, शस्त्र आदि से पुद्गलकाय का घात होने पर जीवकाय का भी घात होता है।