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अध्यात्मपद्धतिरूप स्वाश्रित मोक्षमार्ग मोक्षमार्ग के साधक शुभभाव भी ऊँची श्रेणी के ही होते हैं, तीव्रपाप के भाव तो उसके कभी होते ही नहीं। भूमिका से अविरुद्ध जो शुभ या अशुभभाव होते हैं, उनका भी धर्मीजीव ज्ञाता रहता है, साक्षी रहता है, तटस्थ रहता है; औदयिकभाव के प्रवाह में वह स्वयं प्रवाहित नहीं हो जाता। दो क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव हों – उनमें से एक ध्यान में बैठा हो
और एक युद्ध में खड़ा हो; वहाँ युद्ध में खड़े होनेवाले के ऐसी शंका नहीं होती कि अरे, यह ध्यान में और मैं युद्ध में; अतः मेरा सम्यग्दर्शन कुछ शिथिल हो गया होगा? अथवा मेरे ज्ञान में कुछ दोष होगा? – ऐसी शंका सम्यक्त्वी को कदापि होती नहीं। यह निःशंक है कि मेरा सम्यग्दर्शन मेरे स्वभाव के अवलम्बन से है, वह इस औदयिकभाव में मलिन अथवा अभावरूप नहीं हो जायेगा। राग के समय राग से भिन्न एक चैतन्यधारा ज्ञानी के वर्त्त रही है - इस धारा का नाम अध्यात्मपद्धति है और वह सीधी केवलज्ञान में जाकर मिल जाती है।
वाह! 'मोक्षमार्ग स्वाश्रित है, पराश्रित नहीं' - यह सिद्धान्त पण्डितजी ने कितना स्पष्ट कर दिया है। जीव का पराश्रित क्षयोपशम भाव भी मोक्ष का कारण नहीं, तो फिर पराश्रित औदयिकभाव मोक्ष का कारण कैसे होगा? बाहर की बात तो निकाल ही डाली, राग भी निकाल दिया
और अन्दर का क्षयोपशमभाव भी जो पराश्रित है, उसको भी मोक्षमार्ग में से निकाल दिया; मात्र स्वाश्रितभाव ही मोक्षमार्ग है। मोक्षमार्ग के साथ में उदयभाव हो अथवा रागादिरूप अशुद्धव्यवहार हो, किन्तु क्या उनके अवलम्बन से मोक्षमार्ग है? नहीं, सम्यग्दृष्टि को तो उस व्यवहार से मुक्त कहा है। क्योंकि उसको उसका अवलम्बन नहीं है। जिसप्रकार केवलीप्रभु उदय के ज्ञाता हैं; उसीप्रकार छद्मस्थज्ञानी भी उदय का ज्ञाता है, उसकी परिणति उदयभाव को तोड़ती हुई अध्यात्मधारा के बल से आगे बढ़ती जाती है।