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परमार्थवचनिका प्रवचन
देखो तो सही, गृहस्थ श्रावकों को भी अध्यात्म का कैसा प्रेम है और कैसी सरस चर्चा की है। इन पण्डित बनारसीदासजी ने उपादान - निमित्त के सात दोहों की भी रचना करके उपादान की एकदम स्वतंत्रता प्रमाणित की है। कोई कहे कि यह तो उन्होंने उपादान की भावुकतावश लिख दिया है, किन्तु भाई! तू भी तो निमित्त की भावुकतावश उसका नकार कर रहा है । उपादान की स्वतंत्रता का सिद्धान्त तुझे नहीं जमता, नहीं जँचता; इसलिये ही 'भावुकता' कहकर उसको उड़ा रहा है। पण्डितजी ने तो वस्तुस्वरूप का सत्य सिद्धान्त प्रसिद्ध किया है और सत्य सिद्धान्त के पक्ष
भावुकता भी हो तो इसमें क्या दोष है ? तुझे तो अभी बाहर की क्रिया ( जड़ की क्रिया) का अकर्त्तापना भी नहीं बैठता तो फिर 'सम्यक्त्वी उदयभाव का भी अकर्त्ता है' - यह बात जमेगी ही कैसे ? और 'बहिर्लक्षी ज्ञान भी मोक्ष का साधक नहीं है', यह बात तुझे कौन समझायेगा ?
धर्मीजीव ज्ञान की स्वसंवेदनधारा से मोक्ष लेगा । जब बाहर की धारा ही मोक्ष नहीं देगी तो फिर राग या जड़ की क्रिया तो मोक्ष कहाँ से देगी?
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इतना जान लेने पर बाहर के ज्ञान का विशेष क्षयोपशम हो अथवा पुण्योदय प्रबल हो, तो भी उसका गर्व ज्ञानी को नहीं होता । अरे! जो मेरे मोक्ष का कारण नहीं, उसका गर्व कैसा ? स्वानुभव में जो मेरे काम न आवें, उसकी महिमा क्या? द्वादशांग जानता न हो, तथापि ज्ञानी को कदाचित् ऐसी लब्धि उघड़ जाय कि श्रुतकेवली जैसा ही निःशंक उत्तर सूक्ष्मतत्त्वों के सम्बन्ध में भी दे दे, तो भी इस उघाड़ का गर्व या महत्ता ज्ञानी के नहीं है। ज्ञानी की वास्तविक शक्ति स्वसंवेदन में है । स्वसंवेदन को पहचाने, तभी ज्ञानी की सच्ची महिमा का बोध हो सके। किसी ज्ञाता बारह अंग का ज्ञान न हो तो भी स्वानुभव के बल से केवलज्ञान की उपलब्धि करेगा।