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परमार्थवचनिका प्रवचन
और चौथे को रत्नकरण्ड श्रावकाचार जैसे चरणानुयोग के उपदेश की वृत्ति उठी; इसप्रकार भिन्न-भिन्न विकल्प होने पर भी भूमिका सबकी एक-सी थी। अमुक विकल्प हो तो ही अमुक गुणस्थान हो - ऐसा विकल्प का प्रतिबन्ध नहीं है। फिर भी जो विकल्प होगा, वह भूमिका का उल्लंघन करे – ऐसा विकल्प (जैसे छठवें गुणस्थान में वस्त्र पहनने आदि का) नहीं होगा। इस संबंध में विस्तृत विवेचन पहले हो चुका है।
साधकभाव की एक ही धार है कि 'अन्तर में चैतन्य की स्वसत्ता का जितना अवलम्बन है, उतना ही साधकभाव है' ऐसे स्वाश्रयभाव की एक कणिका भी जिसके जागृत नहीं हुई, वह पराश्रय भाव के चाहे जितने पहाड़ खोद डाले तो भी 'खोदा पहाड़ निकली चूहिया' वाली कहावत के अनुसार वह कुछ भी हाथ में प्राप्त नहीं कर सकेगा; उसके तो "खोदा पराश्रयभाव का पहाड़ और निकली संसाररूपी चूहिया' - यही सिद्ध हो सकेगा।
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प्रश्न – कोई स्वच्छन्दी प्रश्न करे कि हमें तो संसार संबंधी खानेपीने आदि के अशुभविकल्प ही आते हैं, किन्तु धर्मसम्बन्धी भक्तिपूजन - स्वाध्याय आदि के शुभविकल्प नहीं आते। विकल्प तो भूमिकानुसार आते हैं - ऐसा आपने ही तो ऊपर कहा है ।
उत्तर - हाँ, भाई ! तेरी भूमिका के लिए वह विकल्प योग्य है, क्योंकि स्वच्छन्दता की भूमिका में तो ऐसा विपरीत ही विकल्प होता है न! धर्म की रुचिवाले जीव की भूमिका में धर्मसम्बन्ध विचार आते हैं और संसार की रुचिवाले जीव की भूमिका में संसार की ओर के पापविचार आते हैं। जिसको संसार के पापभाव का तीव्ररस होगा, उसको धर्म के विचार आवेंगे ही कहाँ से? ऐसे जीव की तो यहाँ बात ही कहाँ है ? यहाँ तो साधकजीव किस भाँति मोक्षमार्ग साधता है और उस मोक्षमार्ग के साधनकाल में कैसे-कैसे भाव बीच में आते हैं - उनकी बात है । उसे