________________
अध्यात्मपद्धतिरूपस्वाश्रित मोक्षमार्ग
पराश्रितभाव को मोक्षमार्ग मान लेना, अलग बात है। पराश्रितभाव तो ज्ञानी को भी होता है, किन्तु वह उसको मोक्षमार्ग नहीं मान लेता। ज्ञानी तो शुद्धस्वभाव के आश्रय से मोक्षमार्ग साधता जाता है और पराश्रितभावों को तोड़ता जाता है; कुछ शेष भी रह जाय तो उसका तमाशगीर रहता है। इक्कीस प्रकार के औदयिकभाव हैं, उनमें से मिथ्यात्वादिरूप औदयिकभाव तो ज्ञानी के होते ही नहीं और शेष जो औदयिकभाव वर्तते हैं; वे ज्ञान के ज्ञेयपने वर्त्तते हैं। ज्ञानी उनका कर्ता नहीं, उनका भोक्ता भी नहीं, और ज्ञान में उनका अवलम्बन भी नहीं। अन्तर में स्वभाव का अवलम्बन ज्ञान ही मोक्षमार्ग है। बाह्य का जानपना हीन भी हो तो भी ज्ञानी को खेद नहीं और विशेष जानपना हो तो उसकी भी कुछ महत्ता नहीं, क्योंकि बाहर के ज्ञान से मोक्षमार्ग का है नहीं। यहाँ तक कि अवधि-मनःपर्यय ज्ञान हो तो शीघ्र मोक्ष प्राप्त हो, और न हो तो विलम्ब लगे – ऐसा भी कोई नियम नहीं है। मोक्ष का साधन तो स्वानुभूति की उग्रतानुसार ही है।
पुनश्च ज्ञान के साथ (एकपने नहीं, किन्तु सहकारीपने) जो जो औदयिकभाव वर्त्तते हैं, उनको ज्ञानी जानता है; किन्तु उसके उनका आग्रह अथवा पकड़ नहीं है। ऐसा ही राग और ऐसी ही क्रिया हो तो ठीक – ऐसी परावलम्बन की बुद्धि उसके नहीं है। एक ही गुणस्थान में भिन्न-भिन्न विकल्प और भिन्न-भिन्न क्रियायें होती हैं, एक जीव को भी एक ही प्रकार का विकल्प सदा रहता नहीं, अनेक प्रकार के विकल्प होते हैं। कुन्दकुन्द स्वामी, वीरसेन स्वामी, जिनसेन स्वामी अथवा समन्तभद्र स्वामी – ये सभी मुनिवर छठवें-सातवें गुणस्थान की भूमिका में - मोक्षमार्ग में वर्त्तते थे। फिर भी उनमें से एक को समयसार जैसा अध्यात्म शास्त्र रचने का विकल्प आया, दूसरे को षट्खण्डागम की धवला टीका जैसे करणानुयोग के शास्त्र निर्माण का विकल्प हुआ, तीसरे को तीर्थंकरों के पुराण की रचना रूप कथानुयोग – प्रथमानुयोग रचने का भाव आया