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________________ हेय-ज्ञेय-उपादेयरूप ज्ञाता की चाल छोड़ना क्या? इसलिये वहाँ हेयरूप में उन अव्रतादि को नहीं लेना; अपितु उस भूमिका में जो महाव्रतादि सम्बन्धी शुभराग विद्यमान है - वर्त्त रहा है, वह राग ही वहाँ हेयरूप है। कारण कि छोड़नेयोग्य तो निज में होनेवाली – रहनेवाली अशुद्धता है, किन्तु अपने में जो अशुद्धता है ही नहीं, उसको क्या छोड़ना? इसलिये हेयपना भी गुणस्थान अनुसार जानना। केवली भगवन्त को अब कोई मिथ्यात्व अथवा रागादिक को हेय करना नहीं रहा, उनके तो वे भाव छूट ही चुके हैं; उनका छोड़ना क्या? इसतरह सर्व गुणस्थानों में जो अशुद्धता विद्यमान हो, उसका ही हेयपना समझना। जैसे-जैसे गुणस्थान बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे हेयरूप भाव घटते जाते हैं और उपादेयरूप भाव बढ़ते जाते हैं। अन्त में हेयरूप समस्त भाव छूटकर, सर्वथा प्रकार से उपादेय - ऐसी सिद्धदशा प्रगट होती है। फिर वहाँ हेय-उपादेयपने की कोई प्रवृत्ति शेष नहीं रहती - वहाँ कृतकृत्यपना है। - देखो, जैसे-जैसे हेय-उपादेयशक्ति बढ़े, तदनुसार गुणस्थान भी बढ़ता है - ऐसा कहा। हेय-उपादेयरूप तो अपने अशुद्ध-शुद्धभाव ही कहे; किन्तु परद्रव्य के ग्रहण-त्यागानुसार गुणस्थान बढ़ता है – ऐसा नहीं कहा। वस्त्रादि त्यागे, इसलिए गुणस्थान बढ़ गया - ऐसा नियम नहीं है; अपितु मिथ्यात्वादि परभाव छोड़ने के प्रमाण में ही गुणस्थान बढ़ता है। गुणस्थान बढ़ने पर उस-उस गुणस्थान अनुसार बाह्य त्याग (जैसे छठवें गुणस्थान में वस्त्रादि का त्याग) तो सहजरूप से स्वयं होता है; उस त्याग का कर्तृत्व आत्मा को नहीं है, आत्मा के तो उसका मात्र ज्ञातृत्व ही है। आत्मा को वह बाह्य त्याग ज्ञेयपने है, उपादेयपने नहीं। हेय-ज्ञेय-उपादेय सम्बन्धी ज्ञाता के विचार तो ऐसे ही होते हैं, इससे विरुद्ध विचार हों तो वे अज्ञानी के विचार हैं। मोक्षमार्ग कहीं दो प्रकार का नहीं है, मोक्षमार्ग तो एक ही प्रकार का है; स्वाश्रित-भावरूप एक ही
SR No.007132
Book TitleParmarth Vachanika Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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