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परमार्थवचनिका प्रवचन
गुणस्थान के योग्य क्रिया (शुभराग एवं बाह्य क्रिया) होती है। यद्यपि एक गुणस्थान में भी भिन्न-भिन्न अनेक जीवों की अलग-अलग क्रिया होती है, तथापि वह क्रिया उस गुणस्थान के योग्य ही होती है - उससे विरुद्ध नहीं होती। जैसे - करोड़ों मुनि छठवें गुणस्थान में हों, उनमें से कोई स्वाध्याय, कोई ध्यान, कोई आहार, कोई विहार, कोई आलोचना, कोई प्रायश्चित्त, कोई उपदेश, कोई तीर्थवन्दना, कोई जिनस्तवन, कोई दिव्यध्वनि-श्रवण – इत्यादि भिन्न-भिन्न क्रियाओं में प्रवर्तते हों; किन्तु कोई वस्त्र पहनता हो, पात्र में भोजन करता हो, अथवा सदोष आहार लेता हो - ऐसी क्रियायें छठे गुणस्थान में संभव नहीं है।
इसीप्रकार चौथे गुणस्थान में जिनप्रभु की पूजा, मुनिराजों आदि को आहारदान, स्वाध्याय, शास्त्रश्रवणादि शुभकार्य तथा व्यापार-आरम्भादि अशुभकार्य, यदाकदा स्वरूप का ध्यान आदि क्रियायें होती हैं, किन्तु कुदेव-कुगुरु का सेवन, बुद्धिपूर्वक त्रसहिंसा अथवा मांस-भक्षणादि क्रियायें संभव नहीं हैं। इसप्रकार राग और बाह्य क्रियायें यद्यपि निमित्त हैं, तथापि वे गुणस्थान के अनुसार होती हैं।
तेरहवें गुणस्थान में केवलज्ञानी प्रभु के योग का कम्पन, दिव्यध्वनि, गगन में मंगलविहार आदि क्रियायें होती हैं; किन्तु वहाँ रोग, आहार अथवा भूमिगमन जैसी क्रियायें नहीं होती। जिस भूमिका में जैसी क्रिया
और जैसा राग संभव न हो, वैसी क्रिया और वैसा राग वहाँ माने तो उसको उस भूमिका का भी सच्चा ज्ञान नहीं है; और उस भूमिका के योग्य होनेवाले निमित्तों की भी सच्ची पहचान नहीं है।
. अब हेय के सम्बन्ध में सुनिये :- जिस भूमिका में जिसप्रकार की अशुद्धता शेष हो, उसे वहाँ हेयरूप जाने; परन्तु उस भूमिका में जिसप्रकार की अशुद्धता का अभाव ही हो, वहाँ हेय किसको करना? जैसे छठवें गुणस्थान में मिथ्यात्व-अव्रतादि भाव छूट ही चुके हैं अर्थात् अब उनका