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परमार्थवचनिका प्रवचन
अब, ज़ो कुछ भी ग्रहण -त्यागरूप है, वह सब अपने में ही है। अपनी अवस्था में जो अशुद्धता है, वह हेय है; अशुभराग हो या शुभराग हो - वह अशुद्ध है, इसलिये हेय है; उसके किसी भी अंश को धर्मी जीव उपादेय नहीं मानता।
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अपने द्रव्य की शुद्धता ही उपादेय है। शुद्धद्रव्य को दृष्टि में लेकर उसमें एकाग्रता करने पर पर्याय भी शुद्ध होती जाती है। पर्याय अपेक्षा से पूर्ण शुद्धतारूप मोक्ष उपादेय है, सम्यग्दर्शनादि शुद्ध पर्याय भी उपादेय है। शुद्धद्रव्य को श्रद्धा - ज्ञान में लेने पर ही शुद्धद्रव्य को उपादेय किया- ऐसा कहा जाता है। इसतरह अपने द्रव्य की शुद्धता ही उपादेय है; इसके अतिरिक्त समस्त परद्रव्य तो मात्र ज्ञेय हैं, हेय अथवा उपादेय नहीं ।
प्रश्न परद्रव्य हेय - उपादेय नहीं तो क्या सिद्धभगवान आदि पंचपरमेष्ठी भी उपादेय नहीं ?
उत्तर - भाई ! धैय पूर्वक यह बात समझने जैसी है। क्या सिद्ध भगवान या पंचपरमेष्ठी में से उनका एक भी अंश तेरे में आता है ? जब उनका कोई भी अंश तेरे में नहीं आता, तो तू उनको उपादेय किसप्रकार करेगा ? हाँ, तुझे यदि पंचपरमेष्ठी पद वास्तव में प्रिय और उपादेय लगता है तो अपने द्रव्य की शुद्धता की ओर जा ! और उसमें से शुद्धपर्यायरूप परमेष्ठीपद प्रगट कर! इसतरह तू स्वयं ही पंचपरमेष्ठी में मिल जा! इसलिए कहा भी है कि - 'पंचपदव्यवहार से, निश्चय आतम माँहि' अर्थात् आत्मसन्मुख होना ही पंचपरमेष्ठी को उपादेय करने की रीति है ।
सिद्ध वगैरह को यहाँ ज्ञेय कहा है, अतः उनका स्वरूप विचार कर ! जो उनको वास्तव में ज्ञेय बनावे तो उस ज्ञान में अपना शुद्धात्मा उपादेय ही हो जाय - ऐसा नियम है। अपने शुद्धात्मा को जो ज्ञान उपादेय नहीं करता, वह ज्ञान सिद्ध वगैरह पंचपरमेष्ठी का सच्चा स्वरूप भी नहीं पहचान सकता अर्थात् उनको वास्तव में ज्ञेय नहीं बना सकता, साथ ही परभावों को हेय भी नहीं बना सकता। इसप्रकार जहाँ शुद्धात्मा