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________________ हेय-ज्ञेय-उपादेयरूप ज्ञाता की चाल का उपादेयपना है, वहाँ ही सिद्ध वगैरह का ज्ञेयपना और परभावों का हेयपना है। हेय, ज्ञेय और उपादेय की ऐसी पद्धति धर्मात्मा के ही होती है, अज्ञानी के तो उसमें नियम से विपरीतता होती है। ___ शुद्धात्मा को उपादेय करके जैसे-जैसे स्वसन्मुखता वृद्धिंगत होती जाती है, वैसे-वैसे परभाव छूटते जाते हैं और ज्ञानशक्ति बढ़ती जाती है; तथा शुद्धता बढ़ने पर गुणस्थान भी बढ़ता है। ज्ञानी के जैसे-जैसे गुणस्थान बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे हेय-ज्ञेय-उपादेय शक्ति भी बढ़ती जाती है। प्रश्न - ज्ञानी के जैसे-जैसे गुणस्थान बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे अशुद्धता छूटती जाती है और शुद्धता बढ़ती जाती है अर्थात् हेय और उपादेय शक्ति तो बढ़ती जाती है; परन्तु गुणस्थानानुसार ज्ञान भी बढ़ता है - यह किसप्रकार? किसी को चतुर्थ गुणस्थान ही हो तथापि अवधिज्ञान होता है जबकि किसी को बारहवाँ गुणस्थान हो तो भी अवधिज्ञान न हो - ऐसी दशा में गुणस्थान बढ़ने पर ज्ञान शक्ति भी बढ़ती है - यह नियम तो नहीं रहा? उत्तर - यहाँ स्वज्ञेय को जानने की प्रधानता है, क्योंकि यहाँ मोक्षमार्ग के साधने का प्रकरण है। मोक्षमार्ग कहीं अवधिज्ञान से नहीं सधता, वह तो सम्यक् मति-श्रुतज्ञान द्वारा स्वज्ञेय को पकड़ने से सधता है. और स्वज्ञेय को पकड़ने की ऐसी ज्ञानशक्ति तो गुणस्थान बढ़ने पर नियम से बढ़ती ही है। चतुर्थ गुणस्थानवाले अवधिज्ञानी की अपेक्षा, अवधिज्ञानरहित बारहवें गुणस्थानवाले जीव के ज्ञान में स्वज्ञेय को ग्रहण करने की शक्ति विशेष बढ़ गई है। स्वज्ञेय की तरफ ढलनेवाला ज्ञान ही मोक्षमार्गरूप प्रयोजन को साधता है। गुणस्थान प्रमाण ज्ञानशक्ति बढ़ती जाती है, परन्तु एक गुणस्थान में बहुत से जीव हों तो सबका ज्ञान एक-सा नहीं होता और उन सबकी क्रिया भी समान नहीं होती। एक गुणस्थानवर्ती अनेक जीवों के ज्ञानादि में तारतम्यता होती है, किन्तु उनकी विरुद्ध जाति नहीं होती। चतुर्थ
SR No.007132
Book TitleParmarth Vachanika Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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