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________________ हेय-ज्ञेय-उपादेयरूप ज्ञाता की चाल हेय अर्थात् त्यागरूप तो अपने द्रव्य की अशुद्धता, ज्ञेय अर्थात् विचाररूप अन्य षद्रव्यों का स्वरूप, उपादेय अर्थात् आचरणरूप अपने द्रव्य की शुद्धता। उसका विवरण - गुणस्थान प्रमाण हेयज्ञेय-उपादेयरूप शक्ति ज्ञाता की होती है। ज्यों-ज्यों ज्ञाता की हेयज्ञेय-उपादेयरूप शक्ति वर्धमान हो, त्यों-त्यों गुणस्थान की बढ़वारी कही है। गुणस्थान प्रमाण ज्ञान, गुणस्थान प्रमाण क्रिया। उसमें विशेष इतना कि एक गुणस्थानवर्ती अनेक जीव हों तो अनेकरूप ज्ञान कहा जाता है, अनेकरूप क्रिया कही जाती है। भिन्न-भिन्न सत्ता के प्रमाण से एकता नहीं मिलती। एक-एक जीवद्रव्य में अन्य-अन्यरूप औदयिकभाव होते हैं, उन औदयिक भावानुसार ज्ञान की अन्यअन्यता जानना। विशेष इतना कि किसी जाति का ज्ञान ऐसा नहीं होता कि परसत्तावलम्बनशीली होकर मोक्षमार्ग साक्षात् कहे। क्यों? अवस्था प्रमाण परसत्तावलम्बक है। (परन्तु) परसत्तावलम्बी ज्ञान परमार्थता नहीं कहता। जो ज्ञान स्वसत्तावलम्बनशीली होता है - उसी का नाम ज्ञान है। देखो, यह धर्मी की विचारधारा! धर्मात्मा परद्रव्य को तो अपने से भिन्न जानता ही है, वह तो भिन्न ही है। अर्थात् उसमें कुछ त्यागपना और ग्रहणपना तो आत्मा के है ही नहीं, वे समस्त परद्रव्य तो ज्ञेयरूप हैं।
SR No.007132
Book TitleParmarth Vachanika Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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