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________________ ज्ञाता का मिश्रव्यवहार जब ज्ञाता कदाचित् बन्धपद्धति का विचार करता है, तब वह जानता है कि इस बन्धपद्धति से मेरा द्रव्य अनादिकाल से बन्धरूप चला आया है; अब इस पद्धति का मोह तोड़कर प्रवर्त। इस पद्धति का राग पूर्व की भाँति हे नर! तू किसलिए करता है? - इस भाँति क्षणमात्र भी बन्धपद्धति में वह मग्न नहीं होता। वह ज्ञाता अपना स्वरूप विचारता है, अनुभव करता है, ध्याता है, गाता है, श्रवण करता है; तथा नवधाभक्ति, तप, क्रिया आदि अपने शुद्धस्वरूप के सन्मुख होकर करता है। यह ज्ञाता का आचार है, इसी का नाम मिश्रव्यवहार है। देखो, यह साधक जीव का व्यवहार और उसकी विचार श्रेणी। इसको स्वभाव का कितना रंग है। बार-बार उसका ही विचार उसका ही मनन, उसके ही ध्यान-अनुभव का अभ्यास, उसका ही गुणगान, उसका ही श्रवण, सर्वप्रकार से उसकी ही भक्ति। वह जिस किसी क्रिया में प्रवर्त्तता है, उसे उसमें सर्वत्र शुद्धस्वरूप की सन्मुखता ही मुख्य है। इसके विचार में भी स्वरूप के विचार की मुख्यता है, इसलिए कहा कि - ज्ञाता कदाचित् बन्धपद्धति का विचार करे- तब भी उस बन्धपद्धति में वह मग्न नहीं होता, किन्तु उससे छूटने काही विचार करता है। अज्ञानी तो सब-कुछ राग का सन्मुखता से करता है, शुद्धस्वरूप की सन्मुखता उसको है नहीं। वह कर्मबन्धन आदि का विचार करता है, तो उसमें ही मग्न हो जाता है और अध्यात्म एक तरफ पडा रह जाता है। अरे भाई! ऐसी बन्धपद्धति में तो
SR No.007132
Book TitleParmarth Vachanika Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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