________________
70
परमार्थवचनिका प्रवचन अनादि से तू वर्त ही रहा है, अब तो इसका मोह छोड़! अनादि से इस पद्धति में तेरा किंचित् भी हित हुआ नहीं, अतः इसका मोह तोड़कर अब तो अध्यात्मपद्धति प्रकट कर! ज्ञानियों ने तो इसका मोह तोड़कर अध्यात्मपद्धति प्रकट की है, किन्तु अभी राग की कुछ परम्परा शेष है, उसको भी अध्यात्म की उग्रता से निरस्त करना चाहते हैं अर्थात् राग की पद्धति में वे एकक्षण भी मग्न नहीं होते। देखो, यह मोक्ष के साधक की दशा! 'तू रूचतांजग तनी रुचि आलसे सौ'शुद्धात्मारूप समयसार की जहाँ रुचि हुई, वहाँ परभाव की रुचि रहती ही नहीं! अरे, समस्त जगत की रुचि छूट जाती है। जिसकी अंशमात्र भी राग की रुचि रहे, उसके परिणाम चैतन्य की ओर नहीं झुक सकते और मोक्षमार्ग नहीं सध सकता।
राग की रुचि छोड़कर धर्मी जीव चैतन्य के प्रेम में ऐसा मग्न है कि बार-बार उसका ही स्वरूप विचारता है, उपयोग को पुनः पुनः आत्मा की तरफ लगाता है, कभी-कभी निर्विकल्प अनुभव करता है, एकाग्रता से आत्मा का ध्यान करता है। 'चेतनरूप अनूप अमूरत, सिद्ध समान सदा पद मेरो' – इसप्रकार सिद्ध जैसा निजस्वरूप का अनुभव करता है; इसकी बात सुनते ही उत्साहित हो जाता है, इसका गुणगान एवं महिमागान करते ही उल्लसित हो जाता है। अहा! मेरी चैतन्यवस्तु अचिन्त्य महिमावन्त है, इसके समक्ष रागादि परभाव तो अवस्तु हैं - इस अवस्तु की रुचि कौन करे? इसकी महिमा, इसका गुणगान कौन करे? सम्यग्दृष्टि तो अपने शुद्धस्वरूप की नवधाभक्ति करता है अथवा मुनिराज की नवधाभक्ति करे, उसमें भी शुद्धस्वरूप की सन्मुखता है। इस वचनिका के लेखक पण्डित श्री बनारसीदासजी ने समयसार नाटक के मोक्षद्वार में ज्ञानी कैसी नवधाभक्ति करता है, इसका सुन्दर वर्णन किया है :
श्रवण कीर्तन चिन्तवन सेवन वन्दन ध्यान। लघुता समता एकता-नवधा भक्ति प्रधान ॥८॥