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________________ 38 परमार्थवचनिका प्रवचन हैं। कोई जीव समस्त जगत में से अज्ञान अथवा अशुद्धता का अभाव करना चाहे तो यह कभी हो सकता नहीं। हाँ! स्वयं अपनी आत्मा में से अज्ञान और अशुद्धता मिटाकर केवलज्ञान और सिद्धपद प्रकट कर सकता है। जितना शुभाशुभ व्यवहारभाव है, वह सब आगमपद्धति में है; आगमपद्धति, बंधपद्धति अथवा कर्मपद्धति है - उसमें धर्म नहीं है; धर्म तो अध्यात्मपद्धति में है और वही मोक्षमार्गरूप है, वही शुद्धभावरूप है। इस शुद्धभावरूप अध्यात्मपद्धति में आत्मा का अधिकार कहा, किन्तु आगमपद्धति में नहीं; क्योंकि वह आत्मा के स्वभावरूप नहीं है अपितु विभावरूप है। यहाँ आगमपद्धति कही गई है, उसमें आगम का अर्थ सिद्धान्तरूप शास्त्र मत समझना, किन्तु आगमपद्धति का अर्थ अनादि से चली आई परम्परा अथवा आगन्तुकभाव समझना। विकारी भाव नवीन आगन्तुकभाव हैं, स्वभाव में वे नहीं हैं, किन्तु कर्म के निमित्त से पर्याय में नये-नये उत्पन्न हुए हैं और अनादि से उनका प्रवाह चला आया है। विकार और उनके निमित्तरूप-कर्म इन दोनों का प्रवाह अनादिसे चला आया है, उसका नाम आगमपद्धति है; तथा जीव में जो नवीन अपूर्व अध्यात्मदशा अर्थात् शुद्धपर्याय प्रकट होती है, वह अध्यात्मपद्धति है। इन दोनों प्रकार के भावों का सद्भाव जगत में सदा पाया जाता है। अतः उनका विवेचन अब करते हैं। शुद्धचेतनापद्धति अर्थात् शुद्धात्मपरिणाम; यह भी द्रव्यरूप तथा भावरूप से दो तरह के हैं। द्रव्यरूप तो जीवत्वपरिणाम तथा भावरूप ज्ञान-दर्शन-सुख-वीर्य आदि अनन्त गुणपरिणाम - ये दोनों परिणाम अध्यात्मरूप जानना। इन आगमऔर अध्यात्म दोनों पद्धतियों में अनन्तता मानना। देखो! यह सूक्ष्म बात है, परन्तु है तो जीव के अपने परिणाम की ही बात। जीव को पर्याय में किस-किस प्रकार के भाव होते हैं, उन्हें समझने की यह बात है।
SR No.007132
Book TitleParmarth Vachanika Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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