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________________ जीवद्रव्य की अनन्त अवस्थाएँ 39 आत्मा की परिणति में अशुद्धता अनादि से है, वह स्वभावगत भाव नहीं है किन्तु आगन्तुक विकारीभाव है। वह परिणाम स्वभाव आकाररूप नहीं है; इसलिये उसको पुद्गलाकार कहा है; क्योंकि पुद्गलकर्म उसमें निमित्त है। पुद्गलकर्म की परम्परा तो द्रव्यरूप कर्मपद्धति है और उसके निमित्त से होनेवाली जीव की विकाररूप परम्परा, भावरूप कर्मपद्धति है। इसप्रकार द्रव्य और भावकर्म की परम्परारूप आगमपद्धति है। इन दोनों भावों को जीवद्रव्य का कहा है। प्रश्न - द्रव्यकर्म की परम्परा तो पुद्गल की पर्याय है फिर भी यहाँ उसको जीव का भाव क्यों कहा? उत्तर - वह पुद्गल की पर्याय है, यह बात बराबर सत्य है; परन्तु जीव के अशुद्धभाव के साथ उसका सम्बन्ध है, जीव के अशुद्धभाव के साथ मिला हुआ उसका परिणमन है, इसलिये यहाँ कर्मपद्धति को भी जीव का भाव कह दिया है। जीव के साथ जिनका सम्बन्ध नहीं है, ऐसे दूसरे अनन्त परमाणु भी जगत में हैं; किन्तु उनकी यहाँ बात नहीं है; यहाँ तो जीव के परिणाम के साथ जिनका निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है - ऐसे पुद्गलों की बात है। मकान-शरीर-वस्त्रादि का सम्बन्ध तो जीव को कभी हो और कभी न भी हो, परन्तु संसार में जीव को कर्म का सम्बन्ध तो सदैव होता है; इस सम्बन्ध को बताने के लिए उसको भी जीव का भाव कहा – ऐसा समझना चाहिए। आत्मद्रव्य और उसके ज्ञानादि गुणों के जो शुद्ध परिणाम हैं, वे अध्यात्मपद्धतिरूप हैं। यह अध्यात्मपद्धति शुद्धचेतनारूप है अर्थात् उसमें विकार अथवा कर्मों का सम्बन्ध नहीं है। द्रव्य के शुद्धपरिणाम तो द्रव्यरूप शुद्धचेतनापद्धति हैं और ज्ञान-श्रद्धा-चारित्रादि गुणों के शुद्धपरिणाम भावरूप शुद्धचेतनापद्धति हैं। इसप्रकार ये दोनों परिणाम अध्यात्मरूप जानना।
SR No.007132
Book TitleParmarth Vachanika Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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