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________________ 37 _ 37 जीवद्रव्य की अनन्त अवस्थाएँ आगम अध्यात्म दोनों पद्धतियों में अनन्तता माननी। वस्तु के स्वभाव का अर्थ यहाँ त्रिकालीस्वभाव नहीं समझना चाहिए; किन्तु पर्याय का स्वभाव समझना चाहिए। संसारी जीव की पर्याय में विकार की परम्परा अनादि से चली आई है तथा उसके निमित्तरूप कर्म की परम्परा भी अनादिसे चली आई है, उसको यहाँ आगमपद्धति कहते हैं। यह आगमपद्धति अशुद्ध है; अर्थात् उसमें आत्मा का अधिकार नहीं कहा, अध्यात्मपद्धति शुद्धपर्यायरूप है; अर्थात् उसमें आत्मा का अधिकार कहा। आगमरूप अशुद्धभाव और अध्यात्मरूप शुद्धभाव - इन दोनों भाववाले जीव संसार-अवस्था में सदा होते ही हैं; अर्थात् संसारावस्था में इन दोनों भावों को त्रिकालवी कहा। संसार में साधक और बाधक जीव सदा रहते ही हैं। संसार में कभी मात्र अशुद्धपर्यायवाले जीव ही रह जावें और शुद्धपर्यायवाले जीव न रहें - ऐसा कभी बन नहीं सकता; अथवा सभी जीव शुद्धपर्यायवाले हो जावें और अशुद्धपर्यायवाला कोई जीव न रहे - ऐसा भी कभी हो नहीं सकता। सारांश यह है कि अशुद्धभावरूप आगमपद्धति और शुद्धभावरूप अध्यात्मपद्धति – यह दोनों भाव संसार में त्रिकाल वर्तते हैं। यह बात संसार में रहनेवाले भिन्न-भिन्न जीवों की अपेक्षा से समझना; अर्थात् कोई जीव शुद्धपर्यायवाला, कोई अशुद्धपर्यायवाला, कोई मिश्रपर्यायवाला होगा - इसप्रकार दोनों भाव त्रिकालवर्ती मानना; किन्तु एक ही जीव में यह भाव सदा रहते हैं - ऐसा नहीं समझना, अन्यथा अशुद्धता का अभाव होकर शुद्धता नहीं हो सकेगी, अथवा शुद्धपर्याय भी अनादि की ठहरेगी। एक जीव अपनी पर्याय में से अशुद्धता का अभाव करके शुद्धता प्रकट कर सकता है; किन्तु जगत में सभी जीवों के अशुद्धभाव का सर्वथा अभाव होकर शुद्धता हो जाय - ऐसा कभी होनेवाला नहीं, जगत में सभी भाववाले जीव सदा रहेंगे। सिद्ध भी जगत में अनादि से होते आए हैं और निगोदिया । भी अनादि से ही हैं, मिथ्यादृष्टि व सम्यग्दृष्टि तथा अज्ञानी वे केवलज्ञानी भी अनादि से ही हैं: इस भाँति से सभी प्रकार के जीव जगत में सदा रहनेवाले
SR No.007132
Book TitleParmarth Vachanika Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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