SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 89
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नियमसार अनुशीलन भाव लेना चाहिए। कषाय हैं अन्त में जिसके उसे कषायान्त कहते हैं। इस न्याय से कषाय में मिथ्यात्वादि भी शामिल हैं। इस गाथा में यह भावना भाई गई है कि मैं चारों प्रकार के बंधों से रहित हूँ। - ऐसी भावना वाले के ही सच्चा प्रत्याख्यान होता है ।।९८।। इसके बाद टीकाकार मुनिराज एक छन्द लिखते हैं, जो इसप्रकार है (मंदाक्रांता) प्रेक्षावद्भिः सहजपरमानन्दचिद्रूपमेकं संग्राह्यं तैर्निरुपममिदं मुक्तिसाम्राज्यमूलम् । तस्मादुच्चस्त्वमपिचसखेमद्वचःसारमस्मिन् श्रुत्वाशीघ्रं कुरु तव मतिं चिच्चमत्कारमात्रे॥१३३॥ (हरिगीत ) . जो मूल शिव साम्राज्य परमानन्दमय चिद्रूप है। बस ग्रहण करना योग्य है इस एक अनुपम भाव को।। इसलिए हे मित्र सुन मेरे वचन के सार को। इसमें रमो अति उग्र हो आनन्द अपरम्पार हो।।१३३|| बुद्धिमान व्यक्तियों के द्वारा; मुक्तिरूपी साम्राज्य का मूल कारण, निरुपम, सहज परमानन्दवाले एक चैतन्यरूप भगवान आत्मा को; भली प्रकार ग्रहण किया जाना चाहिए। इसलिए हे मित्र ! मेरे वचनों के सार को सुनकर तू भी अति शीघ्र उग्ररूप से इस चैतन्य चमत्कार में अपनी बुद्धि को लगा। __उक्त छन्द का भाव आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस प्रकार स्पष्ट करते हैं - __ “देखो! टीकाकार मुनिराज प्रेम से कहते हैं कि हे सखा! हे बन्धु! तू मेरे उपदेश का सार सुनकर चैतन्यस्वरूप की ओर अपना लक्ष कर। चैतन्यस्वरूप को लक्ष में लेना ही उपदेश का सार है । चतुर पुरुषों को तो एक सहज परमानन्दमय चिद्रूप आत्मा को ही सम्यक् प्रकार से ग्रहण करना चाहिए। आत्मा का स्वरूप ही मुक्तिसाम्राज्य का मूल है
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy