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________________ ८३ गाथा ९८ : निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार निरुपम और सहज परमानन्दवाला चिदानन्दस्वरूपी भगवान आत्मा ही मोक्षसाम्राज्य का मूल है; उसकी भावना से ही मोक्ष होता है। जो जीव ऐसे चिद्रूप आत्मा को एक को ही सम्यक् प्रकार से ग्रहण करते हैं, वे ही वास्तव में चतुर पुरुष हैं। ___ यहाँ 'हे सखा!' – ऐसा कहकर सम्बोधन किया है अर्थात् हमें तो चैतन्य के ग्रहण से प्रत्याख्यान वर्तता है और हमारा उपदेश सुनकर तुम भी अपना लक्ष चैतन्य में करो; ऐसा करने पर हम और तुम समान हो जायेंगे।” उक्त छन्द के माध्यम से टीकाकार मुनिराज अपने शिष्यों को, अपने पाठकों को अथवा हम सभी को प्रेरणा दे रहे हैं कि मुक्ति को प्राप्त करने का उपाय एकमात्र ज्ञानानन्दस्वभावी निज भगवान आत्मा का अनुभव करना है, ध्यान करना है। इसलिए मेरे कहने का सार यह है कि तुम भी मेरे समान अपनी बुद्धि को इस चैतन्यचमत्काररूप भगवान आत्मा में लगाओ। इससे तुम्हारा कल्याण अवश्य होगा ।।१३३।। . १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ७८८ २. वही, पृष्ठ ७८८-७८९ आत्मा का स्वभाव जैसा है वैसा न मानकर अन्यथा मानना, अन्यथा ही परिणमन करना चाहना ही अनन्त वक्रता है । जो जिसका कर्ता-धर्ताहर्ता नहीं है, उसे उसका कर्ता-धर्ता-हर्ता मानना ही अनन्त कुटिलता है। रागादि आस्रवभाव दुःखरूप एवं दु:खों के कारण हैं, उन्हें सुखस्वरूप एवं सुख का कारण मानना; तद्रूप परिणमन कर सुख चाहना; संसार में रंचमात्र भी सुख नहीं है, फिर भी उसमें सुख मानना एवं तद्रूप परिणमन कर सुख चाहना ही वस्तुतः कुटिलता है, वक्रता है । इसीप्रकार वस्तु का स्वरूप जैसा है वैसा न मानकर, उसके विरुद्ध मानना एवं वैसा ही परिणमन करना चाहना विरूपता है। -धर्म के दशलक्षण, पृष्ठ ५०-५१
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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