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नियमसार गाथा ९८
अब इस गाथा में यह बताते हैं कि अबंधस्वभावी आत्मा का
ध्यान करना ही धर्म है ।
गाथा मूलतः इसप्रकार है
पयडिट्ठिदिअणुभागप्पदेसबंधेहिं वज्जिदो अप्पा । सोहं इदि चिंतिज्जो तत्थेव य कुणदि थिरभावं । । ९८ ।। ( हरिगीत )
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जो प्रकृति थिति अनुभाग और प्रदेश बंध बिन आतमा । मैं हूँ वही - यह सोचता ज्ञानी करे थिरता वहाँ ||१८|| प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभागबंध से रहित जो आत्मा है; मैं वही हूँ । - ऐसा चिन्तवन करता हुआ ज्ञानी उसी में स्थिर भाव करता है । इस गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
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“यहाँ बंध रहित आत्मा को भाना चाहिए - ऐसी शिक्षा भव्यों को दी गई है।
शुभाशुभ मन-वचन-काय संबंधी कर्मों से प्रकृति और प्रदेश बंध होते हैं और चार कषायों से स्थिति और अनुभाग बंध होते हैं। इन चार बंधों से रहित सदा निरुपधिस्वभावी आत्मा ही मैं हूँ - ऐसी भावना सम्यग्ज्ञानी जीव को सदा भाना चाहिए ।"
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स्वामीजी इस गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
'आत्मा का स्वभाव चारों प्रकार के बन्धन से रहित ज्ञानस्वरूप है, उसे पहिचानकर उसमें एकाग्रतारूप भावना करने पर राग का त्याग हो जाता है - यह प्रत्याख्यान है । आत्मा चार प्रकार के पुद्गलकर्म के बन्ध से तो रहित है ही, साथ ही कर्म के कारणरूप विकारी भावों से भी रहित है । बन्ध और बन्ध के भावों से रहित शुद्धात्मा का श्रद्धान- ज्ञान
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