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________________ गाथा ९७ : निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार ७९ है; अतः उसे भी छोड़कर ज्ञानी अपने चैतन्य चिन्तामणि को स्फुटपने प्राप्त करते हैं। मुनियों ने दुष्कृत्य का परिणाम तो छोड़ा ही है, तथा महाव्रतादि का शुभ परिणाम भी छोड़कर वे अतुल चैतन्यस्वरूप में स्थिर होते हैं - यही निश्चय से प्रत्याख्यान है।" __इन छन्दों में प्रगट किये भाव का सार यह है कि जिसप्रकार अमृत भोजन का स्वाद लेनेवाले देवों का मन अन्य भोजन में नहीं लगता; उसीप्रकार ज्ञानात्मक सहज सुख को भोगनेवाले ज्ञानीजनों-मुनिराजों का मन सुख के निधान चैतन्य चिन्तामणि के अतिरिक्त अन्य कहीं नहीं लगता। ___अन्य द्रव्यों से अर्थात् अन्य द्रव्यों संबंधी विकल्प करने से उत्पन्न न होनेवाले तथा अनुपम निजात्मा के आश्रय से उत्पन्न होनेवाले अतीन्द्रिय सुख का स्वाद चख लेने के बाद पुण्योदय से प्राप्त होनेवाला पंचेन्द्रिय विषयोंवाला सुख दुःखरूप ही है। उसका तो मात्र नाम ही सुख है, वस्तुत: वह सुख नहीं, दुःख ही है। ज्ञानी जीव उस लौकिक सुख को छोड़कर ज्ञानानन्दस्वभावी अपने आत्मा को प्राप्त करते हैं।।१३०-१३१॥ - चौथा छन्द इसप्रकार है - (आर्या ) को नाम वक्ति विद्वान् मम च परद्रव्यमेतदेव स्यात् । निजमहिमानंजानन् गुरुचरणसमर्चनासमुद्भूतम् ।।१३२।। (दोहा) गुरुचरणों की भक्ति से जाने निज माहात्म्य। ऐसा बुध कैसे कहे मेरा यह परद्रव्य ||१३२।। गुरु चरणों की भक्ति के प्रसाद से उत्पन्न हुई अपने आत्मा की महिमा को जाननेवाला कौन विद्वान यह कहेगा कि यह परद्रव्य मेरा है। तात्पर्य यह है कि कोई भी ज्ञानी समझदार व्यक्ति यह नहीं कह सकता है कि यह परद्रव्य मेरा है ।।१३२।। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ७८२-७८३ २. वही, पृष्ठ ७८४
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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