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________________ नियमसार अनुशीलन ___ जो जीव अबतक पुण्यकार्य में लगा हुआ है; अब इस सुकृत (पुण्यकार्य) को छोड़कर द्वन्द्वरहित, उपद्रवरहित, उपमारहित, नित्य निज आत्मा से उत्पन्न होनेवाले, अन्य द्रव्यों की विभावना से उत्पन्न न होनेवाले इस निर्मल सुखामृत को पीकर अद्वितीय, अतुल, चैतन्यभावरूप चिन्तामणि को प्रगटरूप से प्राप्त करता है। इन छन्दों के भाव को स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "देखो! आत्मा का स्वाद आए बिना विषयों को छोड़ना चाहे तो वे छूट नहीं सकते। आत्मा के सहज आनन्द का भान होने पर विषयों में सुखबुद्धि नियम से छूट जाती है, रहती ही नहीं। जहाँ चैतन्य के सहज आनन्द का स्वाद आया, वहाँ विषयों की इच्छा नहीं होती। अहो! टीकाकार कहते हैं कि हमारा मन तो सुखनिधान चैतन्यस्वरूप आत्मा में ही लगा है अर्थात् अन्य सब भावों का हमारे प्रत्याख्यान हो गया है। जैसे देवों को अमृत का भोजन मिलने पर अन्य दूधपाक, हलवा आदि के भोजन सहज ही छूट गये होते हैं; वैसे ही हमें चैतन्य के सहजानन्द के स्वाद के मिलने पर शुभाशुभभावों का प्रत्याख्यान हो गया है, हमारा अन्तर तो निरन्तर चैतन्यस्वरूप में ही लगा है। ___ जैसे अग्नि ईंधन से शान्त नहीं होती, वैसे ही विषय-वासना विषयों को भोगने से नहीं मिटती; किन्तु चैतन्य के आनन्द का भोग होने पर वह स्वयं ही टल जाती है। चैतन्यसुख के अनुभव के समक्ष ज्ञानी को शुभ और अशुभ में से किसी की भी इच्छा नहीं है । चैतन्यसुख में लीन होकर पर से विरक्त होना - यह एक ही निर्भयता का स्थान है, इसके अतिरिक्त अन्य कोई स्थान निर्भय नहीं है। चैतन्य के आश्रय से जो सुख प्रगट हुआ; वह स्थायी रहता है, उसमें कोई उपद्रव नहीं है, वह अनुपम है। संसार का सुख कल्पित है, उपद्रवयुक्त है, क्षणिक है; जबकि चैतन्यभावना से उत्पन्न सुख उपमारहित, उपद्रवरहित और नित्य है । ऐसे चैतन्यसुख के सामने शुभकर्म भी दुःखरूप १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ७८२
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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