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गाथा ९७ : निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार
७७ कभी छोड़ा नहीं है और विकाररूप पौद्गलिक विभावभावों को कभी ग्रहण नहीं किया ।।१२९।।। दूसरा व तीसरा छन्द इसप्रकार है -
(शार्दूलविक्रीडित ) मत्स्वान्तंमयि लग्नमेतदनिशंचिन्मात्रचिंतामणावन्यद्रव्यकृताग्रहोद्भवमिमं मुक्त्वाधुना विग्रहम् । तच्चित्रं न विशुद्धपूर्णसहजज्ञानात्मने शर्मणे। देवानाममृताशनोद्भवरुचिं ज्ञात्वा किमन्याशने ॥१३०॥ निर्द्वन्द्वं निरुपद्रवं निरुपमं नित्यं निजात्मोद्भवं नान्यद्रव्यविभावनोद्भवमिदं शर्मामृतं निर्मलम् । पीत्वा यः सुकृतात्मकः सुकृतमप्येतद्विहायाधुना प्राप्नोति स्फुटमद्वितीयमतुलं चिन्मात्रचिंतामणिम् ।।१३१।
(रोला) अन्य द्रव्य के आग्रह से जो पैदा होता।
__ उस तन को तज पूर्ण सहज ज्ञानात्मक सुख की। प्राप्ति हेतु नित लगा हुआ है निज आतम में। .
अमृतभोजी देव लगे क्यों अन्य असन में।।१३०।। अन्य द्रव्य के कारण से उत्पन्न नहीं जो।
निज आतम के आश्रय से जो पैदा होता।। उस अमृतमय सुख को पी जो सुकृत छोड़े।
प्रगटरूप से वे चित् चिन्तामणि को पावें ||१३१।। अब अन्य द्रव्य का आग्रह (एकत्व) करने से उत्पन्न होनेवाले इस विग्रह (शरीर-राग-द्वेष-कलह) को छोड़कर; विशुद्ध, पूर्ण, सहज ज्ञानात्मक सुख की प्राप्ति के लिए मेरा यह अन्तर चैतन्यचिन्तामणिरूप आत्मा निरन्तर मुझमें ही लगा है तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है; क्योंकि अमृतभोजन जनित स्वाद को चखनेवाले देवों को अन्य भोजन से क्या प्रयोजन है ?