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नियमसार अनुशीलन ___ महान पाप को न त्यागे और अन्य पापों से बचने का उपाय करे तो कुछ भी कार्य सिद्ध नहीं होगा।'
आत्मा ज्ञान और आनन्द से भरा है - ऐसी श्रद्धा-ज्ञान करना ही सच्ची भक्ति है। इसप्रकार पुण्य-पाप की रुचि छोड़कर तथा शरीर का स्वामीपना छोड़कर आत्मा आनन्दकन्द है - ऐसी श्रद्धा-ज्ञान और रमणता करने पर अपनी पर्याय में शान्ति प्रकट होती है। उस शान्ति के भक्तियुक्त वीतरागभावरूप जल से भगवान आत्मा को स्नान कराओ कि जिससे मिथ्यात्व और अव्रत के परिणाम उत्पन्न ही न हों। ___ ज्ञान और आनन्दशक्ति अन्दर भरी है, उसमें एकाग्र होने से प्रतिक्रमण होता है। भाषा अथवा रागादि बाह्य लौकिक आलापजालों से प्रयोजन नहीं सधता।"
उक्त सम्पूर्ण कथन का तात्पर्य यह है कि शुभभावपूर्वक शुभ वचनों रूप व्यवहारप्रतिक्रमण से कोई विशेष लाभ होनेवाला नहीं है; इसलिए आत्म-श्रद्धान-ज्ञानपूर्वक आत्मध्यान में मग्न होनेरूप परमार्थप्रतिक्रमण रूप ही परिणमन करो । एकमात्र यही करने योग्य कार्य है, इससे ही यह आत्मा परमात्मपद को प्राप्त करेगा।।११३ ।। दूसरा कलश इसप्रकार है -
(स्रग्धरा) मुक्त्वानाचारमुच्चैर्जननमृतकरं सर्वदोषप्रसंगं स्थित्वात्मन्यात्मनात्मा निरूपमसहजानंददृग्ज्ञप्तिशक्तौ । बाह्याचारप्रमुक्तः शमजलनिधिवार्बिन्दुसंदोहपूतः सोऽयं पुण्यः पुराणः क्षपितमलकलिर्भाति लोकोद्धसाक्षी॥११४।।
(रोला) जन्म-मरण के जनक सर्व दोषों को तजकर।
अनुपम सहजानन्दज्ञानदर्शनवीरजमय ।। आतम में थित होकर समताजल समूह से
कर कलिमलक्षय जीव जगत के साक्षी होते॥११४॥ १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ६९०-६९१