________________
गाथा ८५ : परमार्थप्रतिक्रमणाधिकार
( मालिनी ) अथ निजपरमानन्दैकपीयूषसान्द्रं स्फुरितसहजबोधात्मानमात्मानमात्मा ।
निजशममयवार्भिर्निर्भरानंदभक्त्या
२५
स्नपयतु बहुभिः किं लौकिकालापजालैः।।११३।। ( हरिगीत )
रे स्वयं से उत्पन्न परमानन्द के पीयूष से । रे भरा है जो लबालब ज्ञायकस्वभावी आतमा । । अब उसे जल से नहाओ प्रशम भक्तिपूर्वक । सोचो जरा क्या लाभ है इस व्यर्थ के आलाप से ॥११३॥ हे आत्मन् ! अब अपने आत्मा के आश्रय से उत्पन्न हुए परमानन्दरूपी अमृत से भरे हुए स्फुरित सहज ज्ञानस्वरूप आत्मा को निर्भरानन्द भक्ति पूर्वक स्वयं से उत्पन्न समतारूपी जल द्वारा स्नान कराओ; अन्य बहुत से आलापजालों से क्या लाभ है, अन्य लौकिक वचन विकल्पों से क्या लाभ है ?
इस कलश के भाव को आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
—
“आत्मा निज परम आनन्दरूपी अजोड़ अमृत से भरा हुआ है। शरीर, कर्म आदि परवस्तु हैं, आत्मा में उनका अभाव है। पुण्य-पाप के भाव आकुलता हैं, उनसे रहित आत्मा अमृतकुण्ड से भरा है ।
पंचेन्द्रिय के विषयों में सुख है और दया- दान से कल्याण होगाऐसी मान्यता मिथ्यात्वरूपी महान पाप है। पुण्य-पाप के भावों में सुख नहीं, उन सबसे रहित आत्मा आनन्दकन्द है - ऐसी प्रथम ही पहिचान करनी चाहिए । इस पहिचान के बिना अपने ज्ञानस्वभाव से विपरीत मान्यता वह मिथ्यात्व है । द्यूतकर्म, मांस भक्षण, सुरा-पान, वेश्यागमन आदि जो सप्तव्यसन कहे हैं, उनसे अनन्तगुना पाप मिथ्यात्व में है; अतः इस जीव को सर्वप्रथम इस महान पाप का त्याग करना चाहिए । १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ६८९
-