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नियमसार अनुशीलन
आचार है। अतिक्रम-आत्मा से दूर वसना, व्यतिक्रम - विशेष दूर वसना, अतिचार - निर्बलता का दोष, अस्थिरता का दोष और अनाचार - ऐसे चार भेद हैं; वे सब अनाचार के भेद हैं। मुनि की स्वभाव में न ठहर सकनेवाली निर्बलता भी अनाचार में जाती है । '
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यहाँ मुनि की बात है । दृष्टि अपेक्षा से अनाचार छोड़ने के उपरान्त, अस्थिरता का अनाचार अर्थात् पुण्य-पाप की अस्थिरता को छोड़कर मुनि अपने स्वभाव में स्थिर होते हैं - उन्हें प्रतिक्रमणस्वरूप कहते हैं ।'
निज परमात्म तत्त्व की भावना भाना ही आचार है, शेष सभी अनाचार हैं । आत्मा के स्वभाव में सहज स्थिर होनेवाला ही तपोधन है।
प्रथम स्वलक्षपूर्वक सत्समागम से वस्तुस्वरूप सुनना चाहिए, क्योंकि सुने बिना लक्ष्य स्वतरफ नहीं होता, लक्ष्य बिना सम्यग्दर्शन नहीं होता, सम्यग्दर्शन बिना चारित्र नहीं, चारित्र बिना प्रतिक्रमण नहीं, प्रतिक्रमण बिना वीतरागता और शान्ति नहीं और वीतरागता बिना केवलज्ञान व मुक्ति नहीं हो सकती; इसलिए सर्वप्रथम यथार्थ वस्तुस्वरूप समझना चाहिए ।
आत्मा शुद्ध चैतन्यस्वभावी है - यह मूल प्रयोजनभूत बात स्वीकार किए बिना जीव मिथ्यात्व से विमुख नहीं होता । "
इस गाथा और उसकी टीका में मूल रूप से यही कहा गया है कि परमोपेक्षा संयम को धारण करनेवाले के लिए तो एकमात्र निज शुद्धात्मा की आराधना ही संयम है, सदाचार है; इससे सभी शुभाशुभभाव और शुभाशुभ क्रियायें अनाचार ही हैं, कदाचार ही हैं, हेय ही हैं।
इसप्रकार हम देखते हैं कि सहज वैराग्यभावना से सम्पन्न और समरसीभाव से परिणमित सन्त स्वयं निश्चयप्रतिक्रमण हैं, प्रतिक्रमण रूप हैं ।। ८५ ।।
इसके बाद टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव दो छन्द लिखते हैं; उनमें से पहला छन्द इसप्रकार है -
१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ६८५
३. वही, पृष्ठ ६८७
२. वही, पृष्ठ ६८६
४. वही, पृष्ठ ६८८