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________________ नियमसार गाथा ८५ अब इस गाथा में यह बता रहे हैं कि निश्चयचारित्र के धारक सन्तों को ही निश्चयप्रतिक्रमण होता है । गाथा मूलतः इसप्रकार है - - मोत्तूण अणायारं आयारे जो दु कुणदि थिरभावं । सो पडिकमणं उच्चइ पडिकमणमओ हवे जम्हा ।। ८५ ।। ( हरिगीत ) जो जीव छोड़ अनाचरण आचार में थिरता धरे । प्रतिक्रमणमय है इसलिए प्रतिक्रमण कहते हैं उसे ॥ ८५ ॥ जो जीव अनाचार छोड़कर आचार में स्थिरता करता है, वह जीव प्रतिक्रमण कहा जाता है; क्योंकि वह प्रतिक्रमणमय है । इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं. - “यहाँ निश्चयचारित्रात्मक परमोपेक्षा संयम धारण करनेवाले को निश्चयप्रतिक्रमण होता है - ऐसा कहा है। परमोपेक्षा संयम धारण करनेवाले के लिए अथवा उसकी अपेक्षा शुद्ध आत्मा की आराधना के अतिरिक्त सभी कार्य अनाचार हैं । इसप्रकार के सभी अनाचार छोड़कर सहज चिद्विलास लक्षण निरंजन निज परमात्मतत्त्व की भावनास्वरूप आचरण में जो परमतपोधन सहज वैराग्यभावनारूप से परिणमित होता हुआ स्थिरभाव को धारण करता है; वह परमतपोधन ही प्रतिक्रमणस्वरूप कहा जाता है; क्योंकि वह परमसमरसी भावनारूप से परिणमित होता हुआ सहज निश्चयप्रतिक्रमणमय है ।" आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - - "अशुभभाव से बचने को शुभभाव आवे, वह बात भिन्न है; परन्तु है वह अनाचार ही । शुद्ध स्वभाव में रमणता करना यह एक ही -
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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