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नियमसार अनुशीलन निरपराधी आत्मा तोसदाशुद्धात्मा कासेवन करनेवालाही होता है ।।४०।। इसके बाद टीकाकार एक छन्द स्वयं लिखते हैं; जो इसप्रकार है -
(मालिनी) अपगतपरमात्मध्यानसंभावनात्मा
नियतमिह भवार्तःसापराधःस्मृतःसः। अनवरतमखंडाद्वैतचिद्भावयुक्तो भवति निरपराधः कर्मसंन्यासदक्षः।।११२ ।।
(हरिगीत) परमात्मा के ध्यान की संभावना से रहित जो। . संसार पीड़ित अज्ञजन वे सापराधी जीव हैं। अखण्ड अर अद्वैत चेतनभाव से संयुक्त जो।
निपुण हैं संन्यास में वे निरपराधी जीव हैं।।११२।। इस लोक में जो जीव परमात्मध्यान की भावना से रहित हैं; परमात्म ध्यानरूप परिणमित नहीं हुए हैं; सांसारिक दुःखों से दुःखी उन जीवों को नियम से अपराधी माना गया है। किन्तु जो जीव अखण्ड-अद्वैत चैतन्य भाव से निरंतर युक्त हैं; कर्मों से संन्यास लेने में निपुण वे जीव निरपराधी हैं। __ आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस छन्द का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - ___ “एकतरफ चैतन्यस्वरूप आत्मा विराजता है और दूसरी तरफ सारा जगत है । चैतन्यस्वरूप को अपना माने, वह जीव निरपराध है और पर तथा विकार को अपना माने, वह जीव अपराधी है।"
इसप्रकार इस कलश में यही कहा गया है कि सांसारिक दुःखों से दुःखी अज्ञानी जीव अपने शुद्ध त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा के ज्ञान, श्रद्धान और ध्यान की भावना से रहित होने से, आत्मा की आराधना से रहित होने से अपराधी हैं और ज्ञानादि अनन्त गुणों का अखण्ड पिण्ड निज भगवान आत्मा की आराधना करनेवाले, उसे जाननेवाले, उसका श्रद्धान करनेवाले और उसके ही ध्यान में मग्न रहनेवाले जीव निरपराधी हैं।।११२॥ १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ६७२