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________________ गाथा ८४ : परमार्थप्रतिक्रमणाधिकार स्वयं ज्ञानस्वभावी आत्मा है - ऐसा सम्यक् प्रकार से सिद्ध करना संसिद्धि है; अपने स्वरूप का सेवन करना राध है; अपने स्वभाव का निश्चय करना सिद्धि है; स्वभाव को साधना साधित है और स्वभाव का विशेष सेवन करना आराधित है - ये सभी शब्द एकार्थ हैं। जो आत्मा आत्मा की आराधना से रहित है, वह अपराध है। अपने शुद्धस्वभाव के आश्रय से धर्म नहीं मानकर, पुण्य और निमित्त से धर्म माने तो निश्चय का नाश होता है; वह अपराध है।" __इसप्रकार हम देखते हैं कि इस गाथा में यही कहा गया है कि अभेदरूप से देखने पर प्रतिक्रमणमय होने से प्रतिक्रमण करनेवाला आत्मा ही प्रतिक्रमण है। तात्पर्य यह है कि आत्मा की आराधना ही प्रतिक्रमण है और आत्मा की विराधना ही अप्रतिक्रमण है।।८४॥ इसके बाद टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव उक्तं हि समयसार व्याख्यायां च - समयसार की व्याख्या आत्मख्याति टीका में भी कहा है - कहकर एक छन्द उद्धृत करते हैं; जो इसप्रकार है - (मालिनी) अनवरतमनंतैर्बध्यते सापराधः स्पृशति निरपराधो बंधनं नैव जातु। नियतमयमशुद्धं स्वं भजन्सापराधो भवति निरपराधःसाधुशुद्धात्मसेवी॥४०॥ (हरिगीत) जो सापराधी निरन्तर वे कर्मबंधन कर रहे। जो निरपराधी वे कभी भी कर्मबंधन ना करें। अशुद्ध जाने आतमा को सापराधी जन सदा। शुद्धात्मसेवी निरपराधी शान्ति सेवें सर्वदा।।४०|| अपराधी आत्मा अनन्त पौद्गलिक कर्मों से बंधन को प्राप्त होता है और निरपराधी आत्मा बंधन को कभी स्पर्श भी नहीं करता। अज्ञानी आत्मा तो नियम से स्वयं को अशुद्ध जानता हुआ, अशुद्ध मानता हुआ और अशुद्ध भावरूप परिणमित होता हुआ सदा अपराधी ही है; किन्तु १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ६७० २. समयसार, कलश १८७
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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