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नियमसार अनुशीलन हैं। जो आत्मा अपगतराध अर्थात् राध से रहित है, वह आत्मा अपराध
इस गाथा के भाव को स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
“यहाँ आत्मा की आराधना में वर्तते हुए जीव को ही प्रतिक्रमण कहा है। जो परमतत्त्वज्ञानी जीव निरन्तर अपने स्वभाव में एकाग्र रहते हैं, वे निरपराध हैं। उन्हें यहाँ परमतत्त्वज्ञानी कहा है।
जो आत्मसन्मुख रहते हैं और राग-द्वेष को पर समझकर निरन्तर अपने स्वभाव की एकाग्रता में रहकर उस परिणाम की सन्तति को टूटने नहीं देते; एक समय भी स्वभाव की मुख्यता न छूटे और पुण्य-पाप की मुख्यता न हो- ऐसी जिनकी दशा है, वे जीव निरपराध हैं।
सम्यग्दृष्टि जीव को पुण्य-पाप के परिणाम और संयोग होने पर भी स्वभाव की मुख्यता वर्तती है, इसलिये वे निरपराध हैं।
यहाँ तो दृष्टि-उपरान्त विशेषपने स्थिरता करके स्वभाव की आराधना करनेवाले मुनि को ही प्रतिक्रमण है - ऐसा कहा है।'
जो परिणाम आराधनारहित है, वह विराधना है। अपने शुद्धस्वभाव की आराधना करना, निरपराधभाव है और पुण्य-पाप की आराधना करना, अपराधभाव है। चैतन्यस्वभाव की प्रसन्नता निरपराध है और निमित्त तथा पुण्य की प्रसन्नता अपराध है। चैतन्यस्वभाव की कृपा निरपराध है और निमित्त व पुण्य की कृपा से कल्याण मानना, अपराध है। चैतन्य से सिद्धि मानना, निरपराध है और पुण्य से सिद्धि मानना, अपराध है। ज्ञानस्वभाव से पूर्णता मानना, निरपराध है और पुण्य या अपूर्णता से लाभ मानना, अपराध है। आत्मा के आधार से आत्मा सिद्ध करना, निरपराध है और राग से आत्मा सिद्ध करना, अपराध है।
इसप्रकार विराधनारहित जीव निश्चय प्रतिक्रमणमय है । जो आत्मा अपने स्वभाव में एकाग्रता करता है, वह प्रतिक्रमणस्वरूप कहा जाता है। वहाँ प्रतिक्रमण करनेवाला और प्रतिक्रमण की विधि - ऐसे भेद नहीं रहते। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ६६५
२. वही, पृष्ठ ६६९