________________
गाथा ८५ : परमार्थप्रतिक्रमणाधिकार
-
जन्म-मरण के जनक सर्व दोषों से युक्त अनाचार को सम्पूर्णत: छोड़कर, अनुपम सहज आनन्द-दर्शन-ज्ञान-वीर्यवाले अपने आत्मा में स्वयं स्थित होकर, सम्पूर्ण बाह्याचार से मुक्त होता हुआ समतारूपी समुद्र के जलबिन्दुओं के समूह से पवित्र वह सनातन पवित्र आत्मा, मलरूपी क्लेश का क्षय करके लोक का उत्कृष्ट साक्षी होता है।
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस छन्द के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
“जन्म-मरण के कारणरूप अनाचार छोड़कर धर्मी जीव अनन्तचतुष्टयरूप आत्मा में स्थिर होकर वीतरागी शमरस से पवित्र होता है।
धर्मीजीव समझते हैं कि हम तो वीतराग के भक्त हैं, अपने स्वभाव को चूककर पुण्य-पाप के साथ हमें मैत्री नहीं करना है; इसलिए वे अपनी शुद्धदृष्टि छोड़कर पुण्य-पाप के साथ लाभ मानने की बुद्धि का सेवन नहीं करते। ऐसे अनाचार को पूर्णतः छोड़कर वे अपने शुद्धात्मा में स्थित होते हैं।
यहाँ तो दृष्टि उपरान्त स्थिरता की बात है। जो अपने शान्तस्वभाव में लीन है - ऐसा पवित्र पुराण आत्मा रागरूपी क्लेश का क्षय करके, वीतरागता प्रगट करके, केवलज्ञान प्रगट करता है, वही लोक का उत्कृष्ट साक्षी होता है।"
• उक्त कलश में सबकुछ मिलाकर मात्र इतना ही कहा गया है कि यह भगवान आत्मा जन्म-मरणरूप भव-भ्रमण करानेवाले सम्पूर्ण दोषों से युक्त अनाचार को पूर्णतः छोड़कर अपने आत्मा में स्थिर होकर सम्पूर्ण बाह्याचार अर्थात् बाह्यप्रतिक्रमण को छोड़कर अन्तर में लीनतारूप परमार्थप्रतिक्रमण करता हुआ जगत का साक्षीरूप परिणमित होता है। यही कारण है कि यह कहा गया है कि यह भगवान आत्मा स्वयं प्रतिक्रमण है, प्रतिक्रमणमय है ।।११४ ।। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ६९३
२. वही, पृष्ठ ६९४