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कलश पद्यानुवाद
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(दोहा) अस्थिरपुद्गलखधतन तज भवमूरत जान। सदा शुद्ध जो ज्ञानतन पाया आतम राम ||१६६|| शुध चेतन की भावना रहित शुभाशुभभाव। औषधि है भव रोग की वीतरागमय भाव।।१६७||
(रोला) अरे पंचपरिवर्तनवाले भव के कारण। _ विविध विकल्पोंवाले शुभ अर अशुभ कर्म हैं।
अरे जानकर ऐसा जनम-मरण से विरहित। - मुक्ति प्रदाता शुद्धातम को नमन करूँ मैं ।।१६८|| यद्यपि आदि-अन्त से विरहित आतमज्योति।
सत्य और सुमधुर वाणी का विषय नहीं है।। फिर भी गुरुवचनों से आतमज्योति प्राप्त कर।
सम्यग्दृष्टि जीव मुक्तिवधु वल्लभ होते॥१६९।। अरे रागतम सहजतेज से नाश किया है।
मुनिमनगोचर शुद्ध शुद्ध उनके मन बसता। विषयी जीवों को दुर्लभ जो सुख समुद्र है। शुद्ध ज्ञानमय शुद्धातम जयवंत वर्तता ।।१७०॥
(हरिगीत ) जिनवर कथित आलोचना के भेद सब पहिचान कर। भव्य के श्रद्धेय ज्ञायकभाव को भी जानकर। जो भव्य छोड़े सर्वत: परभाव को पर जानकर। हो वही वल्लभ परमश्री का परमपद को प्राप्त कर||१७१||
(रोला) संयमधारी सन्तों को फल मुक्तिमार्ग का।
जो देती है और स्वयं के आत्मतत्त्व में। नियत आचरण के अनुरूप आचरणवाली।
वह आलोचना मेरे मन को कामधेनु हो ।।१७२।।