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नियमसार अनुशीलन तीन लोक के ज्ञायक निर्विकल्प तत्त्व को।
जो मुमुक्षुजन जान उसी की सिद्धि के लिए। शुद्ध शील आचरे रमे निज आतम में नित।
सिद्धि प्राप्त कर मुक्तिवधु के स्वामी होते॥१७३|| आत्मतत्त्व में मग्न मुनिजनों के मन में जो।
वह विशुद्ध निर्बाध ज्ञानदीपक निज आतम॥ मुनिमनतम का नाशक नौका भवसागर की। ___साधुजनों से वंद्य तत्त्व को वंदन करता ।।१७४।। बुद्धिमान होने पर भी क्या कोई तपस्वी।
ऐसा कह सकता कि करो तुम नये पापको॥ अरे खेद आश्चर्य शुद्ध आतम को जाने।
फिर भी ऐसा कहे समझ के बाहर है यह।।१७५।। सब तत्त्वों में सहज तत्त्व निज आतम ही है।
सदा अनाकुल सतत् सुलभ निज आतम ही है।। परमकला सम्पन्न प्रगट घर समता का जो।
निज महिमारत आत्मतत्त्व जयवंत सदा है।।१७६।। सात तत्त्व में प्रमुख सहज सम्पूर्ण विमल है।
निरावरण शिव विशद नित्य अत्यन्त अमल है।। उसे नमन जो अति दूर मुनि-मन-वचनों से।
परपंचों से विलग आत्म आनन्द मगन है।।१७७|| अरे शान्तरसरूपी अमृत के सागर को।
नित्य उल्लसित करने को तुम पूर्णचन्द हो। मोहतिमिर के नाशक दिनकर भी तो तुम हो।
हे जिन निज में लीन सदा जयवंत जगत में ||१७८|| वे जिनेन्द्र जयवन्त परमपद में स्थित जो।
जिनने जरा जनम-मरण को जीत लिया है। अरे पापतम के नाशक ने राग-द्वेष का।
निर्मूलन कर पूर्ण मूल से हनन किया है।।१७९||