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नियमसार अनुशीलन
भिन्न जो निजभाव से उन विभावों को छोड़कर। मैं करूँ नित चिन्मात्र निर्मल आतमा की भावना || कर जोड़कर मैं नमन करता मुक्ति मारग को सदा । इस दुखमयी भव- उदधि से बस पार पाने के लिए || १५९ ॥ हैं आत्मनिष्ठा परायण जो मूल उनकी मुक्ति का । जो सहजवस्थारूप पुण्य-पाप एकाकार है । जो शुद्ध है नित शुद्ध एवं स्वरस से भरपूर है। जयवंत पंचमभाव वह जो आत्मा का नूर है || १६०|| इस जगतजन की ज्ञानज्योति अरे काल अनादि से । रे मोहवश मदमत्त एवं मूढ है निजकार्य में ॥ निर्मोह तो वह ज्ञानज्योति प्राप्त कर शुधभाव को । उज्ज्वल करे सब ओर से तब सहजवस्था प्राप्त हो || १६१॥
अरे अन्तःशुद्ध शम-दमगुणकमलनी हंस जो । आनन्द गुण भरपूर कर्मों से सदा है भिन्न जो ॥ चैतन्यमूर्ति अनूप नित छोड़े न ज्ञानस्वभाव को । वह आत्मा न ग्रह किंचित् किसी भी परभाव को ॥ १६२ ॥ अरे निर्मलभाव अमृत उदधि में डुबकी लगा । धोये हैं पापकलंक एवं शान्त कोलाहल किया ।। इन्द्रियों से जन्य अक्षय अलख गुणमय आतमा । रे स्वयं अन्तर्ज्योति से तम नाश जगमग हो रहा ||१६३॥ ( रोला )
अरे सहज ही घोर दुःख संसार घोर में ।
प्रतिदिन तपते जीव अनंते घोर दुःखों से | किन्तु मुनिजन तो नित समता के प्रसाद से ।
अरे शमामृत हिम की शीतलता पाते हैं ।।१६४|| रे विभावतन मुक्त जीव तो कभी न पाते।
क्योंकि उन्होंने सुकृत- दुष्कृत नाश किये हैं । इसीलिए तो सुकृत- दुष्कृत कर्मजाल तज ।
अरे जा रहा हूँ मुमुक्षुओं के मारग में ।। १६५ ||