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कलश पद्यानुवाद
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( हरिगीत )
मुक्त्यांगना का भ्रमर अर जो मोक्षसुख का मूल है । दुर्भावनातमविनाशक दिनकरप्रभा समतूल है । संयमीजन सदा संमत रहें समताभाव से । मैं भाऊँ समताभाव को अत्यन्त भक्तिभाव से || १४० || जो योगियों को महादुलभ भाव अपरंपार है । त्रैलोक्यजन अर मुनिवरों का अनोखालंकार है । सुखोदधि के ज्वार को जो पूर्णिमा का चन्द्र है। दीक्षांगना की सरखी यह समता सदा जयवंत है ॥ १४१ ॥ अरे समतासुन्दरी के कर्ण का भूषण कहा । और दीक्षा सुन्दरी की जवानी का हेतु जो ॥ अरे प्रत्याख्यान वह जिनदेव ने जैसा कहा । निर्वाण सुख दातार वह तो सदा ही जयवंत है । । १४२ ॥ ( रोला ) भाविकाल के भावों से तो मैं निवृत्त हूँ ।
इसप्रकार के भावों को तुम नित प्रति भावो ॥ निज स्वरूप जो सुख निधान उसको हे भाई!
यदि छूटना कर्मफलों से प्रतिदिन भावो ॥१४३॥ परमतत्त्व तो अरे भयंकर भव सागर की ।
नौका है - यह बात कही है परमेश्वर ने ॥ इसीलिए तो मैं भाता हूँ परमतत्त्व को ।
अरे निरन्तर अन्तरतम से भक्तिभाव से || १४४ || भ्रान्ति नाश से जिनकी मति चैतन्यतत्त्व में ।
निष्ठित है वे संत निरंतर प्रत्याख्यान में ॥ अन्य मतों में जिनकी निष्ठा वे योगीजन ।
भ्रमे घोर संसार नहीं वे प्रत्याख्यान में || १४५ || जो शाश्वत आनन्द जगतजन में प्रसिद्ध है । वह रहता है सदा अनूपम सिद्ध पुरुष ऐसी थिति में जड़बुद्धि बुधजन क्यों रे रे ।
में ॥
कामबाण से घायल हो उसको ही चाहें ? || १४६ ||