SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 255
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४८ नियमसार अनुशीलन जो नष्ट करता है अघ तिमिर को, वह ज्ञानदीपक भगवान आतम । अज्ञानियों के लिए तो गहन है, पर ज्ञानियों को देता दिखाई ॥ १३६ ॥ ( दोहा ) स्वयं करे भोगे स्वयं यह आतम जग माँहि । स्वयं रुले संसार में स्वयं मुक्त हो जाँहि ॥५४॥ ( वीर ) जनम-मरण के सुख-दुख तुमने स्वयं अकेले भोगे हैं। मात-पिता सुत-सुता बन्धुजन कोई साथ न देते हैं । यह सब टोली धूर्तजनों की अपने-अपने स्वारथ से । लगी हुई है साथ तुम्हारे पर न कोई तुम्हारे हैं ।। ५५ ।। जीव अकेला कर्म घनेरे उनने इसको घेरा है। तीव्र मोहवश इसने निज से अपना मुखड़ा फेरा है ।। जनम-मरण के दुःख अनंते इसने अबतक प्राप्त किये। गुरु प्रसाद से तत्त्व प्राप्त कर निज में किया वसेरा है ।। १३७ ॥ सदा शुद्ध शाश्वत परमातम मेरा तत्त्व अनेरा है। सहज परम चिद् चिन्तामणि चैतन्य गुणों का बसेरा है । अरे कथंचित् एक दिव्य निज दर्शन-ज्ञान भरेला है। अन्य भाव जो बहु प्रकार के उनमें कोई न मेरा है ॥ १३८ ॥ ( दोहा ) चरण द्रव्य अनुसार हो द्रव्य चरण अनुसार । शिवपथगामी बनो तुम दोनों के अनुसार ॥५६॥ जिनका चित्त आसक्त है निज आतम के माँहि । सावधानी संयम विषै उन्हें मरणभय नाँहि ||१३९|| ( रोला ) हे भाई! तुम महासबल तज कर प्रमाद अब । समतारूपी कुलदेवी को याद करो तुम || अज्ञ सचिव युत मोह शत्रु का नाशक है जो । ऐसे सम्यग्ज्ञान चक्र को ग्रहण करो तुम ॥५७॥ १. यशस्तिलकचंपूकाव्य, द्वितीय अधिकार, श्लोक ११९ २. प्रवचनसार, श्लोक १२ ३. अमृताशीति, श्लोक २१
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy