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नियमसार अनुशीलन
अघ वृक्षों की अटवी को वह्नि समान है। ऐसा सत् चारित्र सदा है प्रत्यवान में ॥ इसीलिए हे भव्य स्वयं की बुद्धि को तू ।
आत्मतत्त्व में लगा सहज सुख देने वाले || १४७|| जो सुस्थित है धीमानों के हृदय कमल में ।
अर जिसने मोहान्धकार का नाश किया है । सहजतत्त्व निज के प्रकाश से ज्योतित होकर ।
अरे प्रकाशन मात्र और जयवंत सदा है || १४८|| सकल दोष से दूर अखण्डित शाश्वत है जो ।
भवसागर में डूबों को नौका समान है । संकटरूपी दावानल को जल समान जो ।
भक्तिभाव से नमस्कार उस सहजतत्त्व को ॥ १४९ ॥ जनमुख से है विदित और थित है स्वरूप में ।
रत्नदीप सा जगमगात है मुनिमन घट में । मोहकर्म विजयी मुनिवर से नमन योग्य है ।
उस सुखमंदिर सहजतत्त्व को मेरा वंदन || १५० || पुण्य-पापको नाश काम को खिरा दिया है।
महल ज्ञान का अरे काम ना शेष रहा है । पुष्ट गुणों का धाम मोह रजनी का नाशक ।
तत्त्ववेदिजन नमें उसी को हम भी नमते ॥ १५१ ॥ मोहभाव से वर्तमान में कर्म किये जो ।
उन सबका आलोचन करके ही अब मैं तो ॥ वर्त रहा हूँ अरे निरन्तर स्वयं स्वयं के ।
शुद्ध बुद्ध चैतन्य परम निष्कर्म आत्म में ||५८|| किये कराये अनुमोदित पापों का अब तो ।
आलोचन करता हूँ मैं निष्कपट भाव से ॥ अरे पूर्णतः उन्हें छोड़ने का अभिलाषी ।
धारण करता यह महान व्रत अरे आमरण ॥५९॥२ २. आचार्य समन्तभद्र : रत्नकरण्ड श्रावकाचार, श्लोक १२५
१. समयसार, कलश २२७