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________________ २४५ कलश पद्यानुवाद चित्तमंदिर में सदा दीपक जले शुक्लध्यान का। उस योगि को शुद्धातमा प्रत्यक्ष होता है सदा ।।१२४।। (दोहा) निर्यापक आचार्य के सुनकर वचन सयुक्ति। जिनका चित्त चारित्र घर वन्, उनको नित्य।।१२५।। (वसंततिलका) अरे जिन्हें प्रतिक्रमण ही नित्य वर्ते। अणुमात्र अप्रतिक्रमण जिनके नहीं है। जो सकल संयम भूषण नित्य धारें। उन वीरनन्दि मुनि को नित ही नमें हम।।१२६।। (हरिगीत ) परभाव को परजानकर परित्याग उनका जब करे। तब त्याग हो बस इसलिए ही ज्ञान प्रत्याख्यान है।।४६।। (रोला) नष्ट हो गया मोहभाव जिसका ऐसा मैं । करके प्रत्याख्यान भाविकर्मों का अब तो॥ वर्त रहा हूँ अरे निरन्तर स्वयं स्वयं के। शुद्ध बुद्ध चैतन्य परम निष्कर्म आत्म में ||४७|| (हरिगीत) जो ज्ञानि छोड़े कर्म अर नोकर्म के समुदाय को। उस ज्ञानमूर्ति विज्ञजन को सदा प्रत्याख्यान है।। और सत् चारित्र भी है क्योंकि नाशे पाप सब। वन्दन करूँ नित भवदुखों से मुक्त होनेके लिए।।१२७।। (रोला) केवलदर्शनज्ञानसौख्यमय परमतेज वह। उसे देखते किसे न देखा कहना मुश्किल। उसे जानते किसे न जाना कहना मुश्किल। _____ उसे सुना तो किसे न सुना कहना मुश्किल ||४८|| १. समयसार, गाथा ३४ ३.पद्मनन्दिपंचविंशति, एकत्वसप्तति अधिकार, छन्द २० २.वही.कलश २२८
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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