SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 253
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४६ नियमसार अनुशीलन ( अडिल्ल ) मुनिराजों के हृदयकमल का हंस जो । निर्मल जिसकी दृष्टि ज्ञान की मूर्ति जो || सहज परम चैतन्य शक्तिमय जानिये । सुखमय परमातमा सदा जयवंत है ॥ १२८ ॥ ( हरिगीत ) जो गृहीत को छोड़े नहीं पर न ग्रहे अग्राह्य को । सभी को मैं वही है स्वानुभूति गम्य जो ॥। ४९|| आतमा में आतमा को जानता है देखता । बस एक पंचमभाव है जो नंतगुणमय आतमा ।। उस आतमा ने आजतक छोड़ा न पंचमभाव को । और जो न ग्रहण करता पुद्गलिक परभाव को ।। १२९ ।। ( रोला ) अन्य द्रव्य के आग्रह से जो पैदा होता । उनको त पूर्ण सहज ज्ञानात्मक सुख की ॥ प्राप्ति हेतु नित लगा हुआ है निज आतम में । अमृतभोजी देव लगे क्यों अन्य असन में ।। १३०|| अन्य द्रव्य के कारण से उत्पन्न नहीं जो । निज आतम के आश्रय से जो पैदा होता || उस अमृतमय सुख को पी जो सुकृत छोड़े। प्रगटरूप से वे चित् चिन्तामणि को पावें । ।१३१।। ( दोहा ) गुरुचरणों की भक्ति से जाने निज माहात्म्य | ऐसा बुध कैसे कहे मेरा यह परद्रव्य ।। १३२ ।। ( हरिगीत ) जो मूल शिव साम्राज्य परमानन्दमय चिद्रूप है । बस ग्रहण करना योग्य है इस एक अनुपम भाव को ॥ इसलिए हे मित्र सुन मेरे वचन के सार को । इसमें रमो अति उग्र हो आनन्द अपरम्पार हो ॥१३३॥ १. समाधिशतक, छन्द २०
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy