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नियमसार अनुशीलन
ज्ञानतत्त्व का आभूषण परमात्मतत्त्व यह।
अरे विकल्पों के समूह से सदा मुक्त है। नय समूहगत यह प्रपंच न आत्मतत्त्व में। तब ध्यानावलि कैसे आई कहो जिनेश्वर||१२०॥
(दोहा) पहले कभी न भायी जो भवावर्त के माँहि। भवाभाव के लिए अब मैं भाता हूँ ताहि ।।४३।।'
(हरिगीत) संसार सागर में मगन इस आत्मघाती जीव ने। रे मात्र कहने के धर्म की वार्ता भव-भव सुनी। धारण किया पर खेद है कि अरे रे इस जीव ने। ज्ञायकस्वभावी आत्मा की बात भी न कभी सुनी।।१२१||
(दोहा) जानकार निजतत्त्व के तज विभाव व्यवहार। आत्मज्ञान श्रद्धानमय धरें विमल आचार ||१२२||
(हरिगीत ) प्रतिक्रमण अर प्रतिसरण परिहार निवृत्ति धारणा। निन्दा गरहा और शुद्धि अष्टविध विषकुंभ हैं।।४४||
(रोला) प्रतिक्रमण भी अरे जहाँ विष-जहर कहा हो।
अमृत कैसे कहें वहाँ अप्रतिक्रमण को। अरे प्रमादी लोग अधोऽध: क्यों जाते हैं ? इस प्रमाद को त्याग ऊर्ध्व में क्यों नहीं जाते? ||४५||
(हरिगीत) रे ध्यान-ध्येय विकल्प भी सब कल्पना में रम्य हैं। इक आतमा के ध्यान बिन सब भाव भव के मूल हैं। यह जानकर शुध सहज परमानन्द अमृत बाढ में।
डुबकी लगाकर सन्तजन हों मगन परमानन्द में ||१२३|| १. आत्मानुशासन, श्लोक २३८ २. समयसार, गाथा ३०६ ३. समयसार, श्लोक १८९