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कलश पद्यानुवाद
(हरिगीत) जो मुक्त सब संकल्प शुध निजतत्त्व में अनुरक्त हों। तप मग्न जिनका चित्त नित स्वाध्याय में जो मत्त हों। धन्य हैं जो सन्त गुणमणि युक्त विषय विरक्त हों। वे मुक्तिरूपी सुन्दरी के परम वल्लभ क्यों न हों।।११५||
(दोहा) शल्य रहित परमात्म में तीन शल्य को छोड़। स्थित रह शुद्धात्म को भावै पंडित लोग।।११६||
(कुण्डलिया) अरे कषायों से रंगा भव का हेतु अजोड़। कामबाण की आग से दग्ध चित्त को छोड़॥ दग्ध चित्त को छोड़ भाग्यवश जो न प्राप्त है। ऐसा सुख जो निज आतम में सदा व्याप्त है। निजस्वभाव में नियत आत्मरस माँहि पगा है। उसे भजो जो नाँहि कषायों माँहि रंगा है।।११७ ।।
(हरिगीत) सद्ज्ञानमय शुद्धात्मा पर है न कोई आवरण। त्रिगुप्तिधारी मुनिवरों का परम निर्मल आचरण॥ मन-वचन-तन की विकृतिको छोड़करहेभव्यजन! शुद्धात्मा की भावना से परम गुप्ती को भजो ॥११८||
(रोला) अरे इन्द्रियों से अतीत अन्तर्मुख निष्क्रिय।
ध्यान-ध्येय के जल्पजाल से पार ध्यान जो। अरे विकल्पातीत आतमा की अनुभूति।
ही है शुक्लध्यान योगिजन ऐसा कहते॥४२॥ सदा प्रगट कल्याणरूप परमात्मतत्त्व में।
ध्यानावलि है कभी कहे न परमशुद्धनय || ऐसा तो व्यवहारमार्ग में ही कहते हैं।
हे जिनवर यह तो सब अद्भुत इन्द्रजाल है।।११९।।