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________________ २४२ ( हरिगीत ) साधित अधित राध अर संसिद्धि सिद्धि एक है। बस राध से जो रहित है वह आतमा अपराध है ||३९|| नियमसार अनुशीलन जो सापराधी निरन्तर वे कर्मबंधन कर रहे। जो निरपराधी वे कभी भी कर्मबंधन ना करें ।। अशुद्ध जाने आतमा को सापराधी जन सदा । शुद्धात्मसेवी निरपराधी शान्ति सेवें सर्वदा ||४०|| २ परमात्मा के ध्यान की संभावना से रहित जो । संसार पीड़ित अज्ञजन वे सापराधी जीव हैं ।। अखण्ड अर अद्वैत चेतनभाव से संयुक्त जो । निपुण हैं संन्यास में वे निरपराधी जीव हैं ||११२ ॥ रे स्वयं से उत्पन्न परमानन्द के पीयूष से । रे भरा है जो लबालब ज्ञायकस्वभावी आतमा ।। अब उसे शम जल से नहाओ प्रशम भक्तिपूर्वक । सोचो जरा क्या लाभ है इस व्यर्थ के आलाप से ||११३|| ( रोला ) जन्म-मरण के जनक सर्व दोषों को तजकर । अनुपम सहजानन्दज्ञानदर्शनवीरजमय || आतम में थित होकर समताजल समूह से कर कलिमलक्षय जीव जगत के साक्षी होते ॥ ११४ ॥ ( मनहरण कवित्त ) उतसर्ग और अपवाद के विभेद द्वारा । भिन्न-भिन्न भूमिका में व्याप्त जो चरित्र है । पुराणपुरुषों के द्वारा सादर है सेवित जो । उसे प्राप्त कर संत हुए जो पवित्र हैं ।। चित्सामान्य और चैतन्यविशेष रूप । जिसका प्रकाश ऐसे निज आत्मद्रव्य में ॥ क्रमशः पर से पूर्णतः निवृत्ति करके । १. समयसार, गाथा ३०४ सभी ओर से सदा वास करो निज में ॥ ४१ ॥ २. समयसार, कलश १८७ ३. प्रवचनसार, कलश १५
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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